الأربعاء، 16 ديسمبر 2009

नये हिज्री वर्ष की शुरूआत पर बधाई देने का हुक्म


प्रश्नः

नए हिज्री वर्ष के अवसर पर ``कुल्लो आमिन व अन्तुम बिखैर´´ (अर्थात् तुम हर वर्ष कुशल मंगल रहो) कहते हुये या आशीर्वाद की प्रार्थना (कामना) करते हुये बधाई देने का क्या हुक्म है, इसी तरह कोई संदेश या कार्ड भेजना जिस में प्रेषित के लिए उस के नए वर्ष में भलाई और आशीर्वाद की दुआ करना ?

उत्तरः

हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए योग्य है।

शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि हिज्री वर्ष की बधाई देने का हुक्म क्या है और बधाई देने वाले को क्या उत्तर दिया जायेगार्षोर्षो

तो शैख रहिमहुल्लाह ने उत्तर दिया :

``यदि कोई आप को बधाई दे तो आप उस का उत्तर दें, किन्तु आप स्वयं बधाई का आरम्भ न करें, इस मामले में यही दृष्टिकोण सही (शुद्ध) है, उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति आप से कहे : आप को नया साल मुबारक हो, तो आप उस से कहें : अल्लाह तआला आप को भलाई की बधाई दे और उसे खैर व भलाई और आशीर्वाद का वर्ष बनाये, लेकिन आप लोगों को बधाई देने की शुरूआत न करें, क्योंकि मैं नहीं जानता कि सलफ सालेहीन (इस्लाम की प्रारंभिक पीढ़ियों के पूर्वजों) के बारे में यह बात विर्णत है कि वे एक दूसरे को नये वर्ष की बधाई देते थे, बल्कि यह बात जान लो कि सलफ सालेहीने ने मुहर्रम के महीने से नये वर्ष का आरम्भ उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु की खिलाफत के काल में किया था।´´ (स्रोत : मौसूअतुिल्लक़ा अश्शहरी वल बाबिल मफ्तूह, प्रथम संस्करण की डिस्क से प्रश्न संख्या : 853 का उत्तर, प्रकाशन : कार्यालय दावत व इर्शाद उनेज़ा )

हिज्री वर्ष के आरम्भ पर बधाई देने के विषय में शैख अब्दुल करीम अल-खुज़ैर फरमाते हैं :

मुसलमान के लिए अवसरों जैसे कि त्योहारों में सामान्य शब्दों के द्वारा जिन्हें आदमी इबादत न बना रहा हो, दुआ करने में कोई आपत्ति की बात नहीं है विशेषकर जब इस बधाई का उÌेश्य महब्बत व दोस्ती और मुसलमान के सम्मुख हर्ष व उल्लास का प्रदर्शन करना हो। इमाम अहमद रहिमहुल्लाह कहते हैं : मैं बधाई की शुरूआत नहीं करता हूँ, अगर कोई मुझ से बघाई का आरम्भ करता है तो मैं उस का जवाब दूँगा, क्योंकि अभिवादन (सलाम) का उत्तर देना अनिवार्य है, किन्तु जहाँ तक बधाई देने की शुरूआत का संबंध है तो वह ऐसा तरीक़ा नहीं है जिस का आदेश दिया गया है और न ही वह ऐसी चीज़ों में से है जिस से रोका गया है। (अता-उर रहमान)


السبت، 21 نوفمبر 2009

क़ुर्बानी के जानवर की शर्तें

क़ुर्बानी के जानवर की शर्तें

मैं अपनी और अपने बच्चों की तरफ से क़ुर्बानी करने की इच्छा रखता हूँ, तो क्या क़ुर्बानी के जानवर के कुछ निर्धारित गुण और विशेषतायें हैं ? या मेरे लिए किसी भी बकरी की क़ुर्बानी करना उचित है ?

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

क़ुर्बानी के जानवर की छ: शर्तें हैं :

पहली शर्त :

वे बहीमतुल अनआम (चौपायों) में से हों, और वे ऊँट, गाय और भेड़-बकरी हैं, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान हैं :"और हर उम्मत के लिये हम ने क़ुर्बानी का तरीक़ा मुक़र्रर कर किया है ताकि वे उन बहीमतुल अनआम (चौपाये जानवरों) पर अल्लाह का नाम लें जो अल्लाह ने उन्हें दे रखा है।" (सूरतुल हज्ज : 34)

बहीमतुल अनआम (पशु) से मुराद ऊँट, गाय और भेड़-बकरी हैं, अरब के बीच यही जाना जाता है, इसे हसन, क़तादा, और कई लोगों ने कहा है।

दूसरी शर्त :

वे जानवर शरीअत में निर्धारित आयु को पहुँच गये हों इस प्रकार कि भेड़ जज़आ हो, या दूसरे जानवर सनिय्या हों, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "तुम मुसिन्ना जानवर ही क़ुर्बानी करो, सिवाय इस के कि तुम्हारे लिए कठिनाई हो तो भेड़ का जज़आ़ क़ुर्बानी करो।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।)

मुसिन्ना : सनिय्या या उस से बड़ी आयु के जानवर को कहते हैं, औ जज़आ उस से कम आयु के जानवर को कहते हैं।

ऊँट में से सनिय्या : वह जानवर है जिस के पाँच साल पूरे हो गये हों।

गाय में से सनिय्या : वह जानवर है जिस के दो साल पूरे हो गये हों।

बकरी में से सनिय्या : वह जानवर है जिस का एक साल पूरा हो गाया हो।

और जज़आ : उस जानवर को कहत हैं जो छह महीने का हो।

अत: ऊँट, गाय और बकरी में से सनिय्या से कम आयु के जानवर की क़ुर्बानी करना शुद्ध नहीं है, भेड़ में से जज़आ से कम आयु की कु़र्बानी नहीं है।

तीसरी शर्त :

वे जानवर उन दोषों (ऐबों और कमियों) से मुक्त (खाली) होने चाहिये जिनके होते हुये वे जानवर क़ुर्बानी के लिए पर्याप्त नहीं हैं, औ वे चार दोष हैं :

1- स्पष्ट कानापन : और वह ऐसा जानवर है जिस की आँख धंस गई (अंधी हो गई) हो, या इस तरह बाहर निकली हुई हो कि वह बटन की तरह लगती हो, या इस प्रकार सफेद हो गई हो कि साफ तौर पर उसके कानेपन का पता देती हो।

2- स्पष्ट बीमारी : ऐसी बीमारी जिस की निशानियाँ पशु पर स्पष्ट हों जैस कि ऐसा बुखार जो उसे चरने से रोक दे और उसकी भूख को मार दे, और प्रत्यक्ष खुजली जो उसके गोश्त को खराब कर दे या उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर दे, और गहरा घाव जिस से उस का स्वास्थ्य प्रभावित हो जाये, इत्यादि।

3- स्पष्ट लेंगड़ापन : जो पशु को दूसरे दोषरहित पशुओं के साथ चलने से रोक दे।

4- ऐसा लागरपन जो गूदा को समाप्त करन वाला हो : क्योंकि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रश्न किया गया कि क़ुर्बानी के जानवरों में किस चीज़ से बचा जाये तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने हाथ से संकेत करते हुये फरमाया : "चार : लेंगड़ा जानवर जिस का लेंगड़ापन स्पष्ट हो, काना जानवर जिस का कानापन स्पष्ट हो, रोगी जानवर जिस का रोग स्पष्ट हो, तथा लागर जानवर जिस की हड्डी में गूदा न हो।" इसे इमाम मालिक ने मुवत्ता में बरा बिन आज़िब की हदीस से रिवायत किया है, और सुनन की एक रिवायत में बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हु से ही वर्णित है कि उन्हों ने कहा : अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे बीच खड़े हुये और फरमाय कि : "चार चीज़ें (दोष और खामियाँ) क़ुर्बानी के जानवर में जाइज़ नहीं हैं।" और आप ने पहली हदीस के समान ही उल्लेख किया। इसे अल्बानी ने इर्रवाउल गलील (1148) में सहीह कहा है।

ये चार दोष और खामियाँ क़ुर्बानी के जानवर के पर्याप्त होने में रूकावट हैं (अर्थात् इन में से किसी भी दोष से पीड़ित जानवर की क़ुर्बानी जाइज़ नहीं है), इसी तरह जिन जानवरों में इन्हीं के समान या इन से गंभीर दोष और खामियाँ होंगी उन पर भी यही हुक्म लागू होगा, इस आधार पर निम्नलिखित जानवरों की क़ुर्बानी जाइज़ नहीं है :

1- वह जानवर जो दोनों आँख का अंधा हो।

2- वह जानवर जिस का पेट अपनी क्षमता से अधिक खाने के कारण फूल गया हो, यहाँ तक कि वह पाखान कर दे, और खतरे से बाहर हो जाये।

3- वह जानवर जो जने जाने के समय कठिनाई से पीड़ित हो जाये यहाँ तक कि उस से खतरा टल जाये।

4- ऊँचे स्थान से गिरने या गला गुँठने आदि के कारण मौत के खतरे का शिकार जानवर यहाँ तक कि वह खतरे से बाहर हो जाये।

5- किसी बीमारी या दोष के कारण चलने में असमर्थ जानवर।

6- जिस जानवर का एक हाथ या एक पैर कटा हुआ हो।

जब इन दोषों और खामियों को उपर्युक्त चार नामज़द (मनसूस) खामियों के साथ मिलाया जाये तो उन खामियों (ऐबों) की संख्या जिन के कारण क़ुर्बानी जाइज़ नहीं है दस हो जाती है। ये छह खामियाँ और जो पिछली चार खामियों से पीड़ित हो।

चौथी शर्त :

वह जानवर क़ुर्बानी करने वाले की मिल्कियत (संपत्ति) हो, या शरीअत की तरफ से या मालिक की तरफ से उसे उस जानवर के बारे में अनुमति प्राप्त हो। अत: ऐसे जानवर की क़ुर्बानी शुद्ध नहीं है जिस का आदमी मालिक न हो जैसे कि हड़प किया हुआ, या चोरी किया हुआ, या झूठे दावा के द्वारा प्राप्त किया गया जानवर इत्यादि ; क्योंकि अल्लाह तआला की अवज्ञा के द्वारा उस का सामीप्य और नज़दीकी प्राप्त करना उचित नहीं है।

तथा अनाथ के संरक्षक (सरपरस्त) के लिये उस के धन से उसकी तरफ से क़ुर्बानी करना वैध है अगर उसकी परम्परा है और क़ुर्बानी न होने के कारण उस के दिल के टूटने का भय है।

तथा वकील (प्रतिनिधि) का अपने मुविक्कल के माल से उसकी अनुमति से क़ुर्बानी करना उचित है।

पाँचवीं शर्त :

उस जानवर के साथ किसी दूसरे का हक़ (अधिकार) संबंधित न हो, चुनाँचि उस जानवर की क़ुर्बानी मान्य नहीं है जो किसी दूसरे की गिरवी हो।

छठी शर्त :

शरीअत में क़ुर्बानी का जो सीमित समय निर्धारित है उसी में उसकी क़ुर्बानी करे, और वह समय क़ुर्बानी (10 ज़ुलहिज्जा) के दिन ईद की नामज़ के बाद से अय्यामे तश्रीक़ अर्थात् 13वीं ज़ुलहिज्जा के दिन सूर्यास्त तक है। इस तरह बलिदान के दिन चार हैं : नमाज़ के बाद से ईद का दिन, और उस के बीद अतिरिक्त तीन दिन। जिसने ईद की नमाज़ से फारिग होने से पहले, या तेरहवीं ज़ुलहिज्जा को सूरज डूबने के बाद क़ुर्बानी किया तो उस की क़ुर्बानी शुद्ध और मान्य नहीं है ; क्योंकि इमाम बुखारी ने बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस ने ईद की नमाज़ से पहले क़ुर्बानी की तो उस ने अपने घर वालों के लिए गोश्त तैयार किया है, और उस का धार्मिक परंपरा से (क़ुर्बानी की इबादत) से कोई संबंध नहीं है।" तथा जुनदुब बिन सुफयान अल-बजली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्हों ने कहा : "मैं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास उपस्थित था जब आप ने फरमाया : "जिस ने -ईद की- नमाज़ पढ़ने से पहले क़ुर्बानी कर दिया वह उस के स्थान पर दूसरी क़ुर्बानी करे।" तथा नुबैशा अल-हुज़ली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तश्रीक़ के दिन खाने, पीने और अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल को याद करने के दिन हैं।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है)

किन्तु यदि किसी कारणवश तश्रीक़ के दिन (13 ज़ुलहिज्जा) से विलंब हो जाये, उदाहरण के तौर पर बिना उसकी कोताही के क़ुर्बानी का जानवर भाग जाये और समय बीत जाने के बाद ही मिले, या किसी को क़ुर्बानी करने के लिए वकील (प्रतिनिधि) बना दे और वकील भूल जाये यहाँ तक कि क़ुर्बानी का समय निकल जाये, तो उज़्र के कारण समय निकलने के बाद क़ुर्बानी करने में कोई बात नहीं है, तथा उस आदमी पर क़ियास करते हुये जो नमाज़ से सो जाये या उसे भूल जाये, तो वह सोकर उठने या उसके याद आने पर नमाज़ पढ़ेगा।

निर्धारित समय के अंदर दिन और रात में किसी भी समय क़ुर्बानी करना जाइज़ है, जबकि दिन में क़ुर्बानी करना श्रेष्ठ है, तथा ईद के दिन दोनों खुत्बों के बाद क़ुर्बानी करना अफज़ल हैं, तथा हर दिन उसके बाद वाले दिन से श्रेष्ठ है ; क्योंकि इस में भलाई की तरफ पहल और जल्दी करना पाया जाता है।

शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह के रिसालह : "अहकामुल उज़्हिया वज़्ज़कात" से समाप्त हुआ।

क़ुर्बानी के जानवर की शर्तें

क़ुर्बानी के जानवर की शर्तें

मैं अपनी और अपने बच्चों की तरफ से क़ुर्बानी करने की इच्छा रखता हूँ, तो क्या क़ुर्बानी के जानवर के कुछ निर्धारित गुण और विशेषतायें हैं ? या मेरे लिए किसी भी बकरी की क़ुर्बानी करना उचित है ?

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

क़ुर्बानी के जानवर की छ: शर्तें हैं :

पहली शर्त :

वे बहीमतुल अनआम (चौपायों) में से हों, और वे ऊँट, गाय और भेड़-बकरी हैं, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान हैं :"और हर उम्मत के लिये हम ने क़ुर्बानी का तरीक़ा मुक़र्रर कर किया है ताकि वे उन बहीमतुल अनआम (चौपाये जानवरों) पर अल्लाह का नाम लें जो अल्लाह ने उन्हें दे रखा है।" (सूरतुल हज्ज : 34)

बहीमतुल अनआम (पशु) से मुराद ऊँट, गाय और भेड़-बकरी हैं, अरब के बीच यही जाना जाता है, इसे हसन, क़तादा, और कई लोगों ने कहा है।

दूसरी शर्त :

वे जानवर शरीअत में निर्धारित आयु को पहुँच गये हों इस प्रकार कि भेड़ जज़आ हो, या दूसरे जानवर सनिय्या हों, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "तुम मुसिन्ना जानवर ही क़ुर्बानी करो, सिवाय इस के कि तुम्हारे लिए कठिनाई हो तो भेड़ का जज़आ़ क़ुर्बानी करो।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।)

मुसिन्ना : सनिय्या या उस से बड़ी आयु के जानवर को कहते हैं, औ जज़आ उस से कम आयु के जानवर को कहते हैं।

ऊँट में से सनिय्या : वह जानवर है जिस के पाँच साल पूरे हो गये हों।

गाय में से सनिय्या : वह जानवर है जिस के दो साल पूरे हो गये हों।

बकरी में से सनिय्या : वह जानवर है जिस का एक साल पूरा हो गाया हो।

और जज़आ : उस जानवर को कहत हैं जो छह महीने का हो।

अत: ऊँट, गाय और बकरी में से सनिय्या से कम आयु के जानवर की क़ुर्बानी करना शुद्ध नहीं है, भेड़ में से जज़आ से कम आयु की कु़र्बानी नहीं है।

तीसरी शर्त :

वे जानवर उन दोषों (ऐबों और कमियों) से मुक्त (खाली) होने चाहिये जिनके होते हुये वे जानवर क़ुर्बानी के लिए पर्याप्त नहीं हैं, औ वे चार दोष हैं :

1- स्पष्ट कानापन : और वह ऐसा जानवर है जिस की आँख धंस गई (अंधी हो गई) हो, या इस तरह बाहर निकली हुई हो कि वह बटन की तरह लगती हो, या इस प्रकार सफेद हो गई हो कि साफ तौर पर उसके कानेपन का पता देती हो।

2- स्पष्ट बीमारी : ऐसी बीमारी जिस की निशानियाँ पशु पर स्पष्ट हों जैस कि ऐसा बुखार जो उसे चरने से रोक दे और उसकी भूख को मार दे, और प्रत्यक्ष खुजली जो उसके गोश्त को खराब कर दे या उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर दे, और गहरा घाव जिस से उस का स्वास्थ्य प्रभावित हो जाये, इत्यादि।

3- स्पष्ट लेंगड़ापन : जो पशु को दूसरे दोषरहित पशुओं के साथ चलने से रोक दे।

4- ऐसा लागरपन जो गूदा को समाप्त करन वाला हो : क्योंकि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रश्न किया गया कि क़ुर्बानी के जानवरों में किस चीज़ से बचा जाये तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने हाथ से संकेत करते हुये फरमाया : "चार : लेंगड़ा जानवर जिस का लेंगड़ापन स्पष्ट हो, काना जानवर जिस का कानापन स्पष्ट हो, रोगी जानवर जिस का रोग स्पष्ट हो, तथा लागर जानवर जिस की हड्डी में गूदा न हो।" इसे इमाम मालिक ने मुवत्ता में बरा बिन आज़िब की हदीस से रिवायत किया है, और सुनन की एक रिवायत में बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हु से ही वर्णित है कि उन्हों ने कहा : अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे बीच खड़े हुये और फरमाय कि : "चार चीज़ें (दोष और खामियाँ) क़ुर्बानी के जानवर में जाइज़ नहीं हैं।" और आप ने पहली हदीस के समान ही उल्लेख किया। इसे अल्बानी ने इर्रवाउल गलील (1148) में सहीह कहा है।

ये चार दोष और खामियाँ क़ुर्बानी के जानवर के पर्याप्त होने में रूकावट हैं (अर्थात् इन में से किसी भी दोष से पीड़ित जानवर की क़ुर्बानी जाइज़ नहीं है), इसी तरह जिन जानवरों में इन्हीं के समान या इन से गंभीर दोष और खामियाँ होंगी उन पर भी यही हुक्म लागू होगा, इस आधार पर निम्नलिखित जानवरों की क़ुर्बानी जाइज़ नहीं है :

1- वह जानवर जो दोनों आँख का अंधा हो।

2- वह जानवर जिस का पेट अपनी क्षमता से अधिक खाने के कारण फूल गया हो, यहाँ तक कि वह पाखान कर दे, और खतरे से बाहर हो जाये।

3- वह जानवर जो जने जाने के समय कठिनाई से पीड़ित हो जाये यहाँ तक कि उस से खतरा टल जाये।

4- ऊँचे स्थान से गिरने या गला गुँठने आदि के कारण मौत के खतरे का शिकार जानवर यहाँ तक कि वह खतरे से बाहर हो जाये।

5- किसी बीमारी या दोष के कारण चलने में असमर्थ जानवर।

6- जिस जानवर का एक हाथ या एक पैर कटा हुआ हो।

जब इन दोषों और खामियों को उपर्युक्त चार नामज़द (मनसूस) खामियों के साथ मिलाया जाये तो उन खामियों (ऐबों) की संख्या जिन के कारण क़ुर्बानी जाइज़ नहीं है दस हो जाती है। ये छह खामियाँ और जो पिछली चार खामियों से पीड़ित हो।

चौथी शर्त :

वह जानवर क़ुर्बानी करने वाले की मिल्कियत (संपत्ति) हो, या शरीअत की तरफ से या मालिक की तरफ से उसे उस जानवर के बारे में अनुमति प्राप्त हो। अत: ऐसे जानवर की क़ुर्बानी शुद्ध नहीं है जिस का आदमी मालिक न हो जैसे कि हड़प किया हुआ, या चोरी किया हुआ, या झूठे दावा के द्वारा प्राप्त किया गया जानवर इत्यादि ; क्योंकि अल्लाह तआला की अवज्ञा के द्वारा उस का सामीप्य और नज़दीकी प्राप्त करना उचित नहीं है।

तथा अनाथ के संरक्षक (सरपरस्त) के लिये उस के धन से उसकी तरफ से क़ुर्बानी करना वैध है अगर उसकी परम्परा है और क़ुर्बानी न होने के कारण उस के दिल के टूटने का भय है।

तथा वकील (प्रतिनिधि) का अपने मुविक्कल के माल से उसकी अनुमति से क़ुर्बानी करना उचित है।

पाँचवीं शर्त :

उस जानवर के साथ किसी दूसरे का हक़ (अधिकार) संबंधित न हो, चुनाँचि उस जानवर की क़ुर्बानी मान्य नहीं है जो किसी दूसरे की गिरवी हो।

छठी शर्त :

शरीअत में क़ुर्बानी का जो सीमित समय निर्धारित है उसी में उसकी क़ुर्बानी करे, और वह समय क़ुर्बानी (10 ज़ुलहिज्जा) के दिन ईद की नामज़ के बाद से अय्यामे तश्रीक़ अर्थात् 13वीं ज़ुलहिज्जा के दिन सूर्यास्त तक है। इस तरह बलिदान के दिन चार हैं : नमाज़ के बाद से ईद का दिन, और उस के बीद अतिरिक्त तीन दिन। जिसने ईद की नमाज़ से फारिग होने से पहले, या तेरहवीं ज़ुलहिज्जा को सूरज डूबने के बाद क़ुर्बानी किया तो उस की क़ुर्बानी शुद्ध और मान्य नहीं है ; क्योंकि इमाम बुखारी ने बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस ने ईद की नमाज़ से पहले क़ुर्बानी की तो उस ने अपने घर वालों के लिए गोश्त तैयार किया है, और उस का धार्मिक परंपरा से (क़ुर्बानी की इबादत) से कोई संबंध नहीं है।" तथा जुनदुब बिन सुफयान अल-बजली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्हों ने कहा : "मैं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास उपस्थित था जब आप ने फरमाया : "जिस ने -ईद की- नमाज़ पढ़ने से पहले क़ुर्बानी कर दिया वह उस के स्थान पर दूसरी क़ुर्बानी करे।" तथा नुबैशा अल-हुज़ली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तश्रीक़ के दिन खाने, पीने और अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल को याद करने के दिन हैं।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है)

किन्तु यदि किसी कारणवश तश्रीक़ के दिन (13 ज़ुलहिज्जा) से विलंब हो जाये, उदाहरण के तौर पर बिना उसकी कोताही के क़ुर्बानी का जानवर भाग जाये और समय बीत जाने के बाद ही मिले, या किसी को क़ुर्बानी करने के लिए वकील (प्रतिनिधि) बना दे और वकील भूल जाये यहाँ तक कि क़ुर्बानी का समय निकल जाये, तो उज़्र के कारण समय निकलने के बाद क़ुर्बानी करने में कोई बात नहीं है, तथा उस आदमी पर क़ियास करते हुये जो नमाज़ से सो जाये या उसे भूल जाये, तो वह सोकर उठने या उसके याद आने पर नमाज़ पढ़ेगा।

निर्धारित समय के अंदर दिन और रात में किसी भी समय क़ुर्बानी करना जाइज़ है, जबकि दिन में क़ुर्बानी करना श्रेष्ठ है, तथा ईद के दिन दोनों खुत्बों के बाद क़ुर्बानी करना अफज़ल हैं, तथा हर दिन उसके बाद वाले दिन से श्रेष्ठ है ; क्योंकि इस में भलाई की तरफ पहल और जल्दी करना पाया जाता है।

शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह के रिसालह : "अहकामुल उज़्हिया वज़्ज़कात" से समाप्त हुआ।

ज़ुल-हिज्जा के 10 दिनों की फज़ीलत

ज़ुल-हिज्जा के 10 दिनों की फज़ीलत

हर प्रकार की प्रशंसा और गुण-गान सर्व संसार के पालन कर्ता अल्लाह के लिए योग्य है जिस ने अपनी महान कृपा से हमें इस्लाम की नेमत से सम्मानित किया, तथा अल्लाह की कृपा और शान्ति अवतरित हो अन्तिम सन्देष्टा मुहम्मद पर जिनके द्वारा हमें इस्लाम का संदेश प्राप्त हुआ।

अल्लाह सुब्हानहु व तआला का उम्मते इस्लामिया -मुस्लिम समुदाय- पर बहुत बड़ा उपकार है कि उन्हें अनेक ऐसे अवसर प्रदान किए हैं जो नेकियों एंव भलाईयों के ऋतु हैं, जिनके अन्दर साधारण कार्य -नेकी- का भी प्रतिफल कई-कई गुना मिलता है। उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण एंव बहुमूल्य अवसर इस्लामी जन्तरी के अन्तिम महीना "ज़ुल-हिज्जा के प्राथमिक दस दिन" हैं। जो अल्लाह तआला के निकट पूरे वर्ष के सब से महान दिन हैं। जिनकी विशेषता और महत्व को उजागर करने के लिए अल्लाह तआला ने क़ुरआन में उनकी सौगन्ध खाई है।

अल्लाह तआला का फर्मान है:

"क़सम है फज्र की और दस रातों की।" (सूरतुल-फज्र:89/1-2)

अधिकांश व्याख्याकारों के निकट इस से अभिप्राय "ज़ुल-हिज्जा" की प्राथमिक दस रातें हैं।

तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इन दिनों में नेक कार्य करने को अल्लाह के निकट सब से पसन्दीदा बताया है, आप ने फरमाया:

"ज़ुल-हिज्जा के प्राथमिक दस दिनों में किया गया अमल सालेह -नेकी- अल्लाह के निकट सब से अधिक प्रिय है।" सहाबा ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना भी इतना प्रिय नहीं है ? आप ने फरमाया: "अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना भी इतना प्रिय नहीं, सिवाय उस जिहाद के जिस में आदमी अपने प्राण और धन के साथ निकले और फिर वापस न लौटे।" अर्थात शहीद हो जाए। (सहीह बुखारी )

ज्ञात होना चाहिए कि दिनों में सब से श्रेष्ठ ज़ुल-हिज्जा के प्राथमिक दस दिन हैं और रातों में सब से श्रेष्ठ रमज़ान की अन्तिम दस रातें हैं।

तथा इन दस दिनों में एक दिन ऐसा भी है जिस का रोज़ा रखना दो वर्ष के गुनाहों का कफ्फारा है।

इसी पर बस नहीं बल्कि उस दिन अल्लाह तआला सब से अधिक संख्या में लोगों को जहन्नम से मुक्त करता है।

तथा उस दिन शैतान सब से अधिक अपमानित होता है।

वह ज़ुल-हिज्जा का नवाँ दिन है, जिस दिन संसार के कोने-कोने से आए हुए अल्लाह के मेहमान -हाजी- अरफात के मैदान में ठहरते हैं।

यही वह दिन और स्थान है जब अल्लाह तआला ने इस्लाम धर्म को सम्पूर्ण कर देने की घोषणा की। तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से यह इक़रार लिया कि आप ने इस्लाम के संदेश को पूर्ण रूप से अमानतदारी के साथ लोगों तक पहुँचा दिया है। चुनाँचे सब ने एक ज़ुबान हो कर इस पर हाँ कहा और आप सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने इस पर अल्लाह तआला को गवाह बनाया।

इस शुभ अवसर की छत्र-छाया हमारे सिर पर है। अत: हमारे लिए अति स्वभाविक है कि हम इस बहुमूल्य अवसर से भर पूर लाभ उठायेंं।

इन दस दिनों में करने के योग्य कार्य :

निम्नलिखित पंक्तियों में वह कार्य उल्लेख किये जा रहे हैं जिन को इन दिनों में करना उचित है :

1- हज्ज एंव उम्रा करना: क्योंकि यह बहुत ही अधिक पुन्य के काम हैं, अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "एक उम्रे से दूसरा उम्रा उन दोनों के बीच (होने वाले गुनाहों) का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) है, और मब्रूर हज्ज का बदला जन्नत ही है।" (सहीह बुखारी एंव सहीह मुस्लिम)

तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा रिवायत करते हैं कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "एक के बाद दूसरा हज्ज एंव उम्रा करते रहो ; क्योंकि यह दोनों गरीबी और गुनाहों को ऐसे ही मिटा देते हैं जिस प्रकार लोहार की भठ्ठी लोहे के मैल (ज़ंग) को मिटा देती है।" (सहीह तिर्मिज़ी)

2- रोज़ा रखना: जितना हो सके इन दिनों में रोज़ा रखना ; क्योंकि रोज़ा रखने का बहुत ही अधिक अज्र व सवाब है और यह एक ऐसा काम है जिसे अल्लाह तआला ने अपने लिए चयन कर लिया है, जैसा कि हदीस-क़ुदसी में अल्लाह तआला का फरमान है कि "रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही इस का बदला दूँगा।" (सहीह बुखारी एंव सहीह मुस्लिम)

तथा अबू सईद ख़ुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जो भी बन्दा अल्लाह के मार्ग में एक दिन का रोज़ा रखता है तो अल्लाह तआला इसके कारण उसके चेहरे को सत्तर साल जहन्नम से दूर कर देता है।" (सहीह बुख़ारी एंव सहीह मुस्लिम)

तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने एक सहाबी से फरमाया: "तुम रोज़े को लाज़िम पकड़ो ; क्योंकि इसके समान कोई चीज़ नहीं।"

विशेष रूप से अरफा के दिन (9 ज़ुल-हिज्जा) का रोज़ा रखना मुस्तहब है ; क्योंकि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसकी बहुत बड़ी फज़ीलत बयान की है, जैसाकि अबू क़तादह रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "अरफा -9 ज़ुल-हिज्जा- के दिन के रोज़े के बारे में मुझे अल्लाह तआला से आशा है कि वह इसे इस से एक साल पहले और एक साल बाद के गुनाहों के लिए कफ्फारा (प्रायश्चित) बना देगा।" (सहीह मुस्लिम)

3- इन दिनों में अधिक से अधिक अल्लाह तआला का ज़िक्र करना: क्योंकि इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "अल्लाह के निकट इन दस दिनों से अधिक महान तथा इन में अमले सालेह करने से अधिक पसन्दीदा कोई और दिन नहीं, अत: इन दिनों में अधिक से अधिक ला-इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अक्बर और अल्हम्दुलिल्लाह कहो।" (मुस्नद अहमद)

इमाम बुख़ारी ने इब्ने उमर और अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हुमा के बारे में उल्लेख किया है कि वे दोनों सहाबी इन दस दिनों में बाज़ारों में निकलते और ऊँचे स्वर में तक्बीर कहते थे, इनकी तक्बीर को सुनकर लोग भी तक्बीर कहते थे।

आज कल यह सुन्नत मिट चुकी है, अत: हमें चाहिए कि इस सुन्नत को जीवित करें और इन दस दिनों में बाज़ारों, रास्तों, घरों और मस्जिदों आदि में ज़ोर-ज़ोर से तक्बीर कहें।

ज्ञात होना चाहिए कि यह तक्बीर सामान्य रूप से इन दस दिनों में रात एंव दिन के किसी भी समय पढ़ें गे। इसे तक्बीरे मुत्लक़ कहते हैं। इसकी दूसरी क़िस्म तक्बीरे मुक़ैयद है जिसका समय 9 ज़ुल-हिज्जा को फज्र की नमाज़ से आरम्भ होता है और 13 ज़ुल-हिज्जा को अस्र की नमाज़ में समाप्त हो जाता है, यह तक्बीर केवल फर्ज़ नमाज़ों के बाद कही जाती है।

4- क़ुर्बानी करना : क्योंकि क़ुर्बानी हमारे बाप इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत तथा हमारे पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत है जिसे आप ने कभी नहीं छोड़ा है, बल्कि मुसलमानों को क़ुर्बानी करने पर उभारते और उस पर जो़र देते हुए आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जो आदमी मालदार होते हुए भी क़ुर्बानी न करे वह हमारी ईदगाह के क़रीब भी न आए।" (सुनन इब्ने माजह)

अत: किसी मुसलमान के लिए ताक़त रखते हुए भी क़ुर्बानी न करना कदापि उचित नहीं है।

जो आदमी क़ुर्बानी करना चाहता है उसे चाहिए कि इन दस दिनों में अपने नाखुन और बाल न काटे यहाँ तक कि 10 ज़ुल-हिज्जा को क़ुर्बानी कर ले। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फर्मान है: "जब तुम ज़ुल-हिज्जा का चाँद देख लो और तुम में से कोई व्यक्ति क़ुर्बानी करना चाहे तो वह अपने बाल और नाखुन न काटे यहाँ तक कि क़ुर्बानी कर ले।" (सहीह मुस्लिम आदि)

यदि किसी आदमी की पहले से क़ुर्बानी करने की इच्छा नहीं थी और ज़ुल-हिज्जा का महीना आरम्भ होने के बाद उसने क़ुर्बानी करने की इच्छा की, तो वह उसी समय से अपने नाखुन और बाल काटने से रूक जाए गा जब से उस ने क़ुर्बानी की इच्छा की है।

किन्तु यदि क़ुर्बानी करने का इच्छुक आदमी अपने नाखुन और बाल काट लेता है, तो उसे अल्लाह से तौबा-इस्तिग़फार करना चाहिए, इसके अतिरिक्त उस पर कोई कफ्फारा आदि अनिवार्य नहीं है।

क़ुर्बानी का समय दस ज़ुल-हिज्जा को ईद की नमाज़ पढ़ने के पश्चात आरम्भ होता है और 13 ज़ुल-हिज्जा को सूरज डूबने तक रहता है।

5- फराईज़ एंव वाजिबात की पाबन्दी करने के साथ-साथ अधिक से अधिक नफ्ली इबादतों जैसे नवाफिल, सदक़ात व खैरात, क़ुरआन की तिलावत, लोगों को भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने तथा इनके अतिरिक्त अन्य नेक कामों का इच्छुक होना चाहिए ; क्योंकि इन दिनों में नेकी करना अल्लाह तआला को बहुत ही महबूब और पसन्दीदा है।

अत: इस्लामी भईयो ! हमें चाहिए कि इस शुभ अवसर को ग़नीमत समझते हुए इस में अधिक से अधिक नेक काम करें, अपने गुनाहों से क्षमा याचना करें और अल्लाह की नाफर्मानी और अवज्ञा से अति दूर रहें।

अल्लाह तआला से प्रार्थना है कि हमें इस महान अवसर से लाभान्वित होने की तौफीक़ प्रदान करे और अपनी इबादत और आज्ञापालन पर हमारा सहायक हो।

الاثنين، 16 نوفمبر 2009

हज्ज के अनिवार्य होने की शर्तें



हज्ज के अनिवार्य होने की शर्तें

हज्ज के अनिवार्य होने की शर्तें क्या हैं ?

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

उलमा रहिमहुमुल्लाह ने हज्ज के अनवार्य होने की कुछ शर्तों का उल्लेख किया है, जो कि जब किसी व्यक्ति के अंदर पाई जाती हैं तो उस पर हज्ज अनिवार्य (फर्ज़) हो जाता है, और उनके बिना हज्ज अनिवार्य नहीं होता, और यह पाँच शर्तें है : मुसलमान होना, बुद्धि वाला होना, बालिग (व्यस्क) होना, आज़ाद होना और सामर्थ्य (ताक़त) का होना।

1- इस्लाम (मुसलमान होना)

यह शर्त सभी इबादतों में लागू होती है, इस का कारण यह है कि काफिर से कोई भी इबादत शुद्ध नहीं होती है, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है : "उनके व्यय (खर्च) के स्वीकार न किए जाने का इसके अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं कि उन्हों ने अल्लाह और उसके रसूल को मानना अस्वीकार कर दिया।" (सूरतुत तौबा: 54)

तथा मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में -जब कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें यमन की ओर भेजा- वर्णित है : "तुम अह्ले किताब (यहूदियों व ईसाईयों) की एक कौम के पास जा रहे हो, अत: तुम उन्हें इस बात की गवाही देने का आमंत्रण देना कि अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं और यह कि मैं अल्लाह का पैगंबर हूँ। अगर वे इस बात को स्वीकार कर लें, तो तुम उन्हें इस बात से सूचित करना कि अल्लाह तआला ने उनके ऊपर प्रत्येक दिन और रात में पाँच नमाज़ें अनिवार्य की हैं, अगर वे इस बात को मान लें तो उन्हें बतलाना कि अल्लाह तआला ने उनके ऊपर सद्क़ा (दान) अनिवार्य किया है जो उनके मालदारों से लिया जायेगा और उनके फक़ीरों (गरीब लोगों) पर लौटा दिया जायेगा।" (सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम)

अत: काफिर व्यक्ति को सब से पहले इस्लाम में प्रवेश करने का आदेश दिया जायेगा, जब वह इस्लाम स्वीकार कर ले तो फिर हम उसे नमाज़, ज़कात, रोज़ा, हज्ज और इस्लाम के अन्य अहकाम का आदेश देंगे।

2,3- बुद्धि और व्यस्कता (आक़िल और बलिग होना) :

क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "तीन प्रकार के लोगों से क़लम उठा लिया गया है : सोने वाले आदमी से यहाँ तक कि वह जाग जाए, और बच्चे से यहाँ तक कि वह बालिग़ (व्यस्क) हो जाए, पागल (बुद्धिहीन) से यहाँ तक कि वह समझने बूझने लगे।" इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 4403) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में सहीह कहा है।

अत: बच्चे पर हज्ज अनिवार्य नहीं है, किन्तु अगर उसका संरक्षक (सरपरस्त) उसे लेकर हज्ज करे तो स्वयं उसका अपना हज्ज शुद्ध होगा और बच्चे को हज्ज का सवाब मिलेगा, और उसके संरक्षक को भी उस का सवाब मिलेगा, क्योंकि जब एक महिला ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ओर एक बच्चे को उठा कर पूछा कि: क्या इसका हज्ज है ? तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "हाँ, और तुम्हें इस का अज्र मिलेगा।" (इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है)

4- आज़ादी : अत: गुलाम (दास) पर हज्ज अनिवार्य नहीं है क्योंकि वह अपने मालिक के हक़ की अदायगी में व्यस्त होता है।

5- सामर्थ्य (ताक़त)

अल्लाह तआला का फरमान है : "अल्लाह तआला ने उन लोगों पर जो उस तक पहुँचने का सामर्थ्य रखते हैं इस घर का हज्ज करना अनिवार्य कर दिया है, और जो कोई कुफ्र करे (न माने) तो अल्लाह तआला (उस से बल्कि) सर्व संसार से बेनियाज़ है।" (सूरत आल-इम्रान: 97)

यह शारीरिक शक्ति और आर्थिक शक्ति दोनों को शामिल है।

शारीरिक शक्ति का अर्थ यह है कि वह शारीरिक तौर पर स्वस्थ हो और अल्लाह के घर काबा की तरफ यात्रा करने के कष्ट को सहन कर सकता हो।

आर्थिक शक्ति (माली ताक़त) का मतलब यह है कि वह अल्लाह के घर काबा तक जाने और वहाँ से वापस आने के खर्च भर धन का मालिक हो।

फतावा की स्थायी समिति (11/30) का कहना है :

"हज्ज के लिए सामर्थ्य (ताक़त) का मतलब यह है कि आदमी शारीरिक तौर पर स्वस्थ हो और अल्लाह तआला के घर काबा तक पहुँचाने वाली सवारी जैसे हवाई जहाज़, या गाड़ी (कार, बस) या चौपाये या अपनी यथाशक्ति उसके किराये का मालिक हो, तथा उस के पास इतना सफर का सामान (तोशा) हो जो उसके जाने और आने के लिए काफी हो, इस शर्त के साथ कि वह तोशा (मार्ग व्यय) उन लोगों के खर्चे से अधिक हो जिन का उस के ऊपर खर्चा अनिवार्य है यहाँ तक कि वह अपने हज्ज से वापस लौट आये, तथा महिला के साथ उसका पति या उसका कोई मह्रम होना चाहिये यहाँ तक कि उसके हज्ज या उम्रा के सफर में भी यह शर्त है।"

तथा यह भी शर्त है कि वह खर्च जिसके द्वारा वह अल्लाह के पवित्र घर तक पहुँचना चाहता है उसकी असली आवश्यकताओं (बुनियादी ज़रूरतों), उसके शरई खर्चे और उसके क़र्ज़ की अदायगी से अधिक हो।

क़र्ज़ से अभिप्राय अल्लाह के हुक़ूक़ जैसे कफ्फारा वगैरा और मनुष्यों के हुक़ूक़ हैं।

अत: जिस के ऊपर क़र्ज़ अनिवार्य है, और उस का धन हज्ज करने और क़र्ज को चुकान भर के लिए पर्याप्त नहीं है, तो वह सब से पहले क़र्ज़ की अदायगी करेगा और उस पर हज्ज अनिवार्य नहीं है।

कुछ लोग यह समझते हैं कि क़र्ज़ दार पर हज्ज के अनिवार्य न होने का कारण क़र्ज़ देने वाले से अनुमति का न लेना है, और यदि उस से अनुमति मांग ली गई और उस ने अनुमति दे दी तो कोई हानि की बात नहीं है।

हालांकि इस गुमान का कोई आधार नहीं है, बल्कि उसका कारणा उसके ज़िम्मे (ज़िम्मेदारी) का व्यस्त होना है, और यह बात सर्वज्ञात है कि अगर क़र्ज़ देने वाले ने क़र्ज़ दार को हज्ज करने की अनुमति दे दी तब भी क़र्ज़ दार का ज़िम्मा क़र्ज़ के साथ व्यस्त रहता है, और इस अनुमति से उस का ज़िम्मा समाप्त नहीं हो सकता, इस लिए क़र्ज़ दार से कहा जायेगा कि : पहले तू क़र्ज की अदायगी कर, फिर अगर तेरे पास हज्ज करने भर का धन बाक़ी बचता है तो हज्ज कर, अन्यथा तेरे ऊपर हज्ज अनिवार्य नहीं है।

और अगर क़र्ज़ दार आदमी जिसे क़र्ज़ की अदायगी ने हज्ज से रोक रखा था, मर जाये, तो वह अल्लाह तआला से संपूर्ण रूप से इस्लाम की हालत में मुलाक़ात करेगा, वह कमी व कोताही करने वाला नहीं समझा जायेगा, क्योंकि उस पर हज्ज अनिवार्य नहीं हुआ था, चुनाँचि जिस प्रकार गरीब आदमी पर ज़कात अनिवार्य नहीं है उसी तरह हज्ज भी है।

किन्तु अगर उसने कर्ज़ की अदायगी पर हज्ज को प्राथमिकता दे दी और क़र्ज़ की अदायगी से पहले मर गया तो वह खतरे में है, क्योंकि शहीद की हर चीज़ माफ कर दी जाती है सिवाये क़र्ज़ के। जब शहीद का यह हाल है तो फिर दूसरे का क्या हाल होगा!?

शरई खर्चे का मतलब : वह खर्चे हैं जिन्हें शरीअत स्वीकार करती और मानती है जैसेकि बिना फुज़ूल खर्ची किये हुये अपने ऊपर और अपने परिवार पर खर्च करना, अगर आदमी औसत दर्जे का है और उस की इच्छा हुई कि वह अपने आप को मालदार आदमी के रूप में प्रदर्शित करे तो उस ने एक मंहगी कार खरीद ली ताकि उस के द्वारा मालदारों के साथ बराबरी दिखाये, और उस के पास हज्ज करने के लिए माल नहीं है, तो उस के ऊपर अनिवार्य है कि वह गाड़ी (कार) को बेच दे और उसकी क़ीमत से हज्ज करे, और कोई दूसरी गाड़ी खरीद ले जो उसकी स्थिति के अनुकूल हो।

क्योंकि इस मंहगी गाड़ी की क़ीमत में उस का खर्च शरई खर्च नहीं है, बल्कि वह फुज़ूल खर्ची है जिस से शरीअत रोकती है।

तथा खर्च के अंदर ऐतिबार इस बात का है कि वह उस के लिए और उसके परिवार के लिए काफी हो यहाँ तक कि वह (हज्ज से) वापस लौट आये।

तथा उसके वापस लौटने के बाद उसके पास कोई ऐसा साधन मौजूद हो जिस के द्वारा उसके और जिन पर वह खर्च करता है उन लोगों के पर्याप्त खर्च का प्रबंध हो सके जैसे कि मकान इत्यादि का किराया, या वेतन, या तिजारत और इसी तरह की कोई अन्य चीज़।

इसीलिए उस के ऊपर अनिवार्य नहीं है कि वह अपनी उस तिजारत के मूलधन के द्वारा हज्ज करे जिस के लाभ से वह अपने ऊपर और अपने परिवार पर खर्च करता है, यदि मूलधन की कमी से उसका लाभ इतना कम हो जायेगा कि वह उसके और उसके परिवार के खर्च भर के लिए काफी नहीं रह जायेगा।

फतावा की स्थायी समिति (11/36) से उस आदमी के बारे में प्रश्न किया गया जिस का एक इस्लामी बैंक में कुछ धन है और उसका वेतन उसके धन के लाभ के साथ मिलकर औसत तरीक़े से उस के खर्च के लिए काफी है, तो क्या उस पर मूलधन से हज्ज करना अनिवार्य है ? जबकि ज्ञात रहना चाहिए कि यह चीज़ उसके मासिक वेतन पर प्रभाव डाले गी, और अर्थिक तौर पर उसे कष्ट में डाल देगी। तो समिति ने उत्तर दिया कि :

"अगर तुम्हारी हालत उसी तरह है जैसाकि तुम ने उल्लेख किया है तो तुम हज्ज के मुकल्लफ नहीं हो क्योंकि तुम्हारे पास शरई इस्तिताअत (सामर्थ्य) नहीं है, अल्लाह तआला का फरमान है :

"अल्लाह तआला ने उन लोगों पर जो उस तक पहुँचने का सामर्थ्य रखते हैं इस घर का हज्ज करना अनिवार्य कर दिया है।" (सूरत आल-इम्रान: 97)

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "और उस ने दीन के बारे में तुम पर कोई तंगी नहीं डाली।" (सूरतुल हज्ज : 78) (समिति की बात समाप्त हुई।)

असली ज़रूरतों से मुराद : वह चीज़ें हैं जिन की मनुष्य को अपने जीवन में अधिक आवश्यकता पड़ती है, और उस के लिए उन से उपेक्षा करना कठिन होता है।

उदाहरण के तौर पर : विद्यार्थी के लिए ज्ञान की किताबें, तो हम उस से यह नहीं कहेंगे कि : तू अपनी किताबों को बेच दे और उनकी क़ीमत से हज्ज कर, क्योंकि यह असली ज़रूरतों में से हैं।

इसी प्रकार वह गाड़ी जिस की आदमी को आवश्यकता है, हम उस से यह नहीं कहेंगे कि उसे बेच कर उस की क़ीमत से हज्ज कर, लेकिन अगर उस के पास दो गाड़ियाँ हैं और उसे केवल एक ही की आवश्यकता है तो उस के ऊपर अनिवार्य है कि वह उन में से एक को बेच दे ताकि उसकी क़ीमत से हज्ज करे।

इसी प्रकार कारीगर के लिए अपनी कारी गरी के औज़ार को बेचना अनिवार्य नहीं है क्योंकि उसे उनकी आवश्यकता पड़ती है।

इसी तरह वह गाड़ी जिस पर आदमी काम करता है और उसकी मज़दूरी से वह अपने ऊपर और अपने परिवार पर खर्च करता है, उस के ऊपर उसे बेचना अनिवार्य नहीं है ताकि वह हज्ज कर सके।

इसी तरह असली ज़रूरतों में से : शादी की आवश्यकता भी है।

अगर आदमी को शादी करने की ज़रूरत है तो वह हज्ज पर शादी को प्राथमिकता देगा, नहीं तो पहले हज्ज करेगा।

प्रश्न संख्या (27120) का उत्तर देखिये।

इस का सारांश यह निकला कि माली ताक़त (आर्थिक सामर्थ्य) से अभिप्राय यह है कि उस के क़र्ज़ की अदायगी, शरई खर्चे और असली ज़रूरतों के बाद उसके पास इतना धन बाक़ी बचता हो जो उसके हज्ज के लिए पर्याप्त हो।

अत: जो आदमी अपने शरीर और धन के द्वारा हज्ज करने की ताक़त रखता है उस के ऊपर हज्ज करने में जल्दी करना अनिवार्य है।

और जो आदमी अपने शरीर और धन के द्वारा हज्ज करने की ताक़त नहीं रखता है, या वह अपने शरीर के द्वारा हज्ज की ताक़त तो रखता है किन्तु वह गरीब है उसके पास धन नहीं है, तो ऐसी हालत में उस पर हज्ज अनिवार्य नहीं है।

और जो आदमी अपने धन के द्वारा हज्ज करने की ताक़त रखता है किन्तु शारीरिक तौर पर वह असक्षम है तो हम देखेंगे कि :

अगर उसकी असक्षमता और असमर्थता के समाप्त होने की आशा है जैसे कि ऐसा बीमार आदमी जिसकी बीमारी के निवारण की आशा की जाती है तो वह आदमी प्रतीक्षा करेगा यहाँ तक कि अल्लाह तआला उसे स्वास्थ्य प्रदान कर दे फिर वह हज्ज करे।

और अगर उसकी असमर्थता और असक्षमता के समाप्त होने की आशी नहीं की जाती है जैसे कि कैंसर का रोगी, या वयो वृद्ध (बूढ़ा आदमी) जो हज्ज करने की ताक़त नहीं रखता है, तो ऐसे व्यक्ति पर अनिवार्य यह है कि वह अपनी तरफ से हज्ज करने के लिए किसी को प्रतिनिधि बना दे, और शारीरिक तौर पर हज्ज करने की ताक़त न रखने के कारण उस से हज्ज की अनिवार्यता समाप्त नहीं होगी यदि वह अपने धन के द्वारा हज्ज करने में सक्षम है।

इस का प्रमाण :

वह हदीस है जिसे इमाम बुखारी (हदीस संख्या : 1513) रहिमहुल्लाह ने रिवायत किया है कि एक महिला ने कहा : ऐ अल्लाह के पैग़म्बर! हज्ज से संबंधित बन्दों पर अल्लाह का फरीज़ा मेरे बाप पर इस अवस्था में आ पहुँचा है कि वह बहुत बूढ़े हो चुके हैं, वह सवारी पर बैठने की शक्ति नहीं रखते, तो क्या मैं उनकी ओर से हज्ज कर सकती हूँ ? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "हाँ।"

इस हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस महिला को उस की इस बात पर स्वीकृति प्रदान कर दी कि उसके बाप पर हज्ज अनिवार्य हो चुका है जबकि वह शारीरिक तौर पर हज्ज करने की ताक़त नहीं रखते थे।

महिला के ऊपर हज्ज के अनिवार्य होने के लिए एक शर्त यह भी है कि उस के साथ उस का कोई मह्रम भी हो, और उस के लिए बिना मह्रम के हज्ज के लिए यात्रा करना हलाल नहीं है चाहे वह अनिवार्य हज्ज हो या ऐच्छिक, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "महिला बिना महरम के यात्रा न करे।" इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1862) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1341) ने रिवायत किया है।

मह्रम से मुराद उस का पति और हर वह व्यक्ति है जिस पर वह नसब (वंश), या रज़ाअत (दूधपिलाई) या ससुराली संबंध के कारण हमेशा-हमेशा के लिए हराम है। (अर्थात् जिस आदमी से उसकी कभी भी शादी नहीं हो सकती )

बहन का पति (बहनोई) या खाला या फूफी का पति (खालू और फूफा) मह्रम में से नहीं हैं। जबकि कुछ महिलायें इस बारे में सुस्ती से काम लेती हैं और अपनी बहन और बहनोई, या खाला और खालू के साथ यात्रा करती हैं, हालांकि यह हराम (निषिद्ध) है।

इसलिये कि उसका बहनोई या उस का खालू उस के महरम में से नहीं है।

अत: उस के लिए उस के साथ यात्रा करना जाइज़ नहीं है।

और इस बात का भय है कि उसका हज्ज मब्रूर (मक़बूल) न हो, क्योंकि मब्रूर हज्ज वह है जिस में पाप का मिश्रण न हो, और यह महिला तो अपने पूरे सफर में पापी है यहाँ तक कि वापस आ जाये।

महरम के अंदर शर्त यह है कि वह बुद्धि वाला और व्यस्क (बालिग) हो।

क्योंकि महरम के होने का उद्देश्य महिला की रक्षा और सुरक्षा करना है, जबकि बच्चे और पागल आदमी से यह संभव नहीं है।

जब महिला को मह्रम न मिले, या महरम मौजूद हो किन्तु वह उस के साथ सफर करने पर सहमत न हो, तो उस महिला पर हज्ज अनिवार्य नहीं है।

तथा महिला पर हज्ज के अनिवार्य होने की शर्तों में अपने पति से अनुमति लेना शामिल नहीं है, बल्कि जब हज्ज के अनिवार्य होने की शर्तें पूरी हो जायें तो उस पर हज्ज करना अनिवार्य हो जाता है यद्यपि पति अनुमति न दे।

फतावा की स्थायी समिति (11/20) का कहना है :

"जब इस्तिताअत (सामर्थ्य) की शर्तें पूरी हो जायें तो फर्ज़ हज्ज वाजिब हो जाता है, और उन शर्तों में पति से अनुमति लेना शामिल नहीं है, और पति के लिए उसे रोकना जाइज़ नहीं है, बल्कि उस के लिए मश्रूअ़ यह है कि वह इस कर्तव्य की अदायगी में उस के साथ सहयोग करे।" (फतावा स्थायी समिति 11/20)

यह बात फर्ज़ हज्ज के बारे में है, जहाँ तक नफ्ली (ऐच्छिक) हज्ज का संबंध है तो इब्नुल मुंज़िर ने इस बात पर इज्माअ़ (सर्वसम्मति) का उल्लेख किया है कि पति अपनी पत्नी को नफ्ली हज्ज से रोक सकता है, क्योंकि पति का हक़ उस के ऊपर अनिवार्य है जो ऐसी चीज़ के द्वारा समाप्त नहीं हो सकता जो उस के ऊपर अनिवार्य नहीं है। (अल-मुग़्नी 5/35)

देखिये : अश्शर्हुल मुम्तिअ़ (7/5-28)