الأربعاء، 28 يوليو 2010

शाबान के दूसरे अर्द्ध में रोज़ा रखने से निषेध

शाबान के दूसरे अर्द्ध में रोज़ा रखने से निषे

क्या आधे शाबान (यानी 15 शाबान) के बाद रोज़ा रखना जाइज़ है ? क्योंकि मैं ने सुना है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने से मना किया है ?

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

अबू दाऊद (हदीस संख्या : 3237) तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 738) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 1651) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जब आधा शाबान हो जाये तो रोज़ा न रखो।" इसे अल्बानी ने सहीह तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 590) में सहीह कहा है।

यह हदीस इस बात को इंगित करती है कि आधे शाबान के बाद अर्थात् सोलहवीं शाबान की शुरूआत से रोज़ा रखना निषिद्ध है।

किन्तु इसके विपरीत ऐसे प्रमाण भी आये हैं जो रोज़ा रखने के जाइज़ होने पर तर्क हैं। उन्हीं में से कुछ निम्नलिखित हैं :

बुख़ारी (हदीस संख्या : 1914) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1156) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "रमज़ान से एक या दो दिन पहले रोज़ा न रखो, सिवाय उस आदमी के जो - इन दिनों में - कोई रोज़ा रखता था तो उसे चाहिए कि वह रोज़ा रखे।"

इस हदीस से पता चलता है कि आधे शाबान के बाद उस आदमी के लिये रोज़ा रखना जाइज़ है जिसकी रोज़ा रखने की आदत है। जैसेकि किसी आदमी की सोमवार और जुमेरात को रोज़ा रखने की आदत है, या वह एक दिन रोज़ा रखता और एक दिन इफ्तार करता (रोज़ा तोड़ देता) है . . . इत्यादि।

तथा बुखारी (हदीस संख्या : 1970) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1156) ने आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : "अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे, आप कुछ दिनों को छोड़कर पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे।" हदीस के शब्द मुस्लिम के हैं।

इमाम नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा के कथन ("अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे, आप कुछ दिनों को छोड़कर पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे।") में दूसरा वाक्य, पहले वाक्य की व्याख्या है, और उनके कथन "पूरे शाबान" की व्याख्या "अक्सर शाबान" है।

यह हदीस आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने के जाइज़ होने पर दलालत करती है, लेकिन उस आदमी के लिये जो उसे आधे शाबान से पहले से मिलाये।

शाफेईया ने इन सभी हदीसों पर अमल किया है। चुनांचि उनका कहना है कि आधे शाबान के बाद केवल उस आदमी के लिये रोज़ा रखना जाइज़ है जिसकी रोज़ा रखने की आदत है, या वह उसे आधे शाबान से पहले के साथ मिलाये (अर्थात् यदि आधे शाबान से पहले भी वह रोज़ा रखता था तो वह अब उसके बाद भी रोज़ा रख सकता है।)

और यही बात अक्सर विद्वानों के निकट सबसे शुद्ध है कि हदीस में निषेध कराहत (अप्रियता दर्शाने) के लिये नहीं है, बल्कि तहरीम (निषेध और वर्जन दर्शाने) के लिये है।" देखिये : अल-मजमूअ (6/ 399-400) फत्हुल बारी ( 4/ 129)

नववी रहिमहुल्लाह रियाज़ुस्सालिहीन (पृ. 412) में फरमाते हैं : (आधे शाबान के बाद रमज़ान से पहले रोज़ा रखने से निषेध का अध्याय, सिवाय उस आदमी के जो उसे उसके पहले से मिलाये या -उन दिनों में रोज़ा रखना- उसकी किसी आदत के अनुकूल हो जाये जैसेकि सोमवार और जुमेरात को रोज़ा रखने की उसकी आदत हो।)

विद्वानों की बहुमत इस बात की ओर गई है कि आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने से नषेध की बात ज़ईफ (कमज़ोर) है। और इस आधार पर उन्हों ने कहा है कि आधे शाबान के बाद रोज़ा रखना मक्रूह (घृणित और नापसन्दीदा) है।

हाफिज़ इब्ने हजर कहते हैं : जमहूर उलमा (विद्वानों की बहुमत) का कथन है कि : आधे शाबान के बाद नफ्ली रोज़ा रखना जाइज़ है और इन लोगों ने इस बारे में वर्णित हदीस को ज़ईफ (कमज़ोर) कहा है। इमाम अहमद और इब्ने मईन ने कहा है कि यह हदीस "मुनकर" है।" (फत्हुल बारी से समाप्त हुआ)।

इसी तरह बैहक़ी और तह़ावी ने भी इसे ज़ईफ कहा है।

तथा इब्ने क़ुदामा ने अपनी किताब "अल-मुग़नी" में उल्लेख किया है कि इमाम अहमद ने इस हदीस के बारे में फरमाया : "यह "महफूज़" - सुरक्षित - नहीं है, और हम ने इसके बारे में अब्दुर्रहमान महदी से पूछा, तो उन्हों ने इसे सहीह (शुद्ध) नहीं कहा, और न ही उन्हों ने इस हदीस को मुझ से वर्णन किया। और वह इस हदीस से उपेक्षा करते थे। अहमद ने कहा : अला सिक़ा (विश्वस्त और भरोसेमंद) आदमी हैं उनकी हदीसों में केवल यही हदीस मुनकर (आपत्तिजनक) है।"

अला से मुराद अला बिन अब्दुर्रहमान हैं, वह इस हदीस को अपने बाप के माध्यम से अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत करते हैं।

इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने "तहज़ीबुस्सुनन" में इस हदीस को ज़ईफ क़रार देने वालों का जवाब दिया है : उन्हों ने जो कुछ कहा है उसका सारांश यह है कि : यह हदीस मुस्लिम की शर्त पर सहीह है, और अला का इस हदीस को अकेले ही रिवायत करना हदीस के अन्दर किसी त्रुटि का कारण नहीं है। क्योंकि अला सिक़ा रावी हैं (हदीस बयान करने वाले को रावी कहते हैं)। और मुस्लिम ने अपनी सहीह के अन्दर उनकी उनके बाप के माध्यम से अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से कई हदीसें रिवायत की हैं। तथा बहुत सारी सुन्नतें ऐसी हैं जिन्हें सिक़ा रावियों ने अकेले ही रिवायत किया है और उम्मत ने उन्हें क़बूल किया है . . . फिर उन्हों ने फरमाया : यह गुमान करना कि यह हदीस शाबान के रोज़े पर दलालत करने वाली हदीसों से टकराती है, तो वास्तव में दोनों के बीच कोई टकराव नहीं है, और वे हदीसें आधे शाबान के बाद उसके पहले आधे के साथ रोज़ा रखने पर दलालत करती हैं, तथा दूसरे आधे में आदत के अनुसार रोज़ा रखने पर दलालत करती हैं। और अला की हदीस आधे शाबान के बाद, बिना किसी आदत के या उसके पहले आघे के साथ मिलाये बिना, रोज़ा रखने की निषिद्धता पर दलालत करती है।" (इब्नुल क़ैयिम की बात समाप्त हुई)

शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह से आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने की निषिद्धता की हदीस के बारे में प्रश्न किया गया तो उन्हों ने कहा : वह हदीस सहीह है जैसाकि हमारे भाई अल्लामा शैख नासिरूद्दीन अल्बानी ने कहा है। और उस से मुराद आधे शबान के बाद रोज़े की शुरूआत करने से रोका गया है, किन्तु जिस आदमी ने इस महीने के अक्सर दिनों का रोज़ा रखा या पूरे महीने का रोज़ा रखा तो वह सुन्नत को पहुँच गया।" (मजमूओ फतावा शैख इब्ने बाज़ 15/ 385)

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने "रियाज़ुस्सालिहीन की व्याख्या" (3 / 394) में फरमाया :

"यहाँ तक कि यदि वह हदीस सही ही हो, तब भी उसमें निषेध, हराम होने को नहीं दर्शाता है, बल्कि वह केवल कराहत के लि है, जैसाकि कुछ उलमा रहिमहुमुल्लाह ने इस दृष्टिकोण को अपनाया है। किन्तु जिस आदमी की रोज़ा रखने की आदत है, तो वह आधे शाबान के बाद भी रोज़ा रख सकता है।" (शैख इब्ने उसैमीन की बात समाप्त हुई)

जवाब का सारांश यह है कि :

शाबान के दूसरे आधे में रोज़े का निषेध या तो कराहत (नापसन्दीदा और घृणित होने) के तौर पर है, या उसके वर्जित और हराम होने के कारण है। किन्तु वह आदमी जिसकी -आधे शाबान के बाद- रोज़ा रखने की आदत है, या वह उसे आधे शाबान से पहले के साथ मिलाता है तो उसके लिए कोई निषेध नहीं है।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

इस निषेध की हिमकत (तत्वदर्शिता) यह है कि लगातार रोज़ा रखना आदमी को रमज़ान के रोज़े रखने से कमज़ोर कर सकता है।

यदि आपत्ति व्यक्त की जाये कि : अगर वह महीने के शुरू से ही रोज़ा रखता है, तो यह तो और अधिक कमज़ोरी का कारण है !

ते इसका उत्तर यह है कि जो आदमी शाबान के शुरू से ही रोज़ा रखता है, वह रोज़ा रखने का आदी हो जाता है। अत: उस से रोज़े की कठिनाई समाप्त हो जाती है।

अल्लामा मुल्ला अली क़ारी कहते हैं : यह निषेध तंज़ीह (नापसन्दीदा होने को दर्शाने) के लिये है, इस उम्मत पर दया करते हुए कि कहीं वे रमज़ान के रोज़े के हक़ को स्फूर्ति के साथ अदा करने से कमज़ोर न हो जायें। परन्तु जो आदमी पूरे शाबान का रोज़ा रखता है वह रोज़े का आदी हो जाता है, और उस से कठिनाई दूर हो जाती है। (क़ारी की बात समाप्त हुई)

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।