الجمعة، 24 سبتمبر 2010

पुरस्कार प्रतियोगिता 1431 हि॰ – 2010 ई॰



पुरस्कार प्रतियोगिता 1431 हि॰ – 2010 ई॰




"अल्लाह के पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम" नामक पुस्तक पर आधारित प्रतियोगिता के ये प्रश्न-पत्र और उसकी शर्तें हैं, जिसे रमज़ान के शुभ अवसर पर आपके लिए प्रस्तुत किया है इस्लामी आमन्त्रण एवं निर्देश कार्यालय रब्वा, रियाज़, सऊदी अरब ने। पुस्तक का गहन अध्ययन कीजिए, उत्तर दीजिए और जीतिए बहुमूल्य पुरस्कार !!! प्रतियोगिता की पुस्तक इसके साथ संलगित है।

प्रश्न पत्र डाउनलोड करने और प्रतियोगिता के बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर मौजूद हैः


الاثنين، 13 سبتمبر 2010

शव्वाल के छ: रोज़ों और अय्यामे बीज़ के रोज़ों को एक ही नीयत में एकत्रित करना

शव्वाल के छ: रोज़ों और अय्यामे बीज़ के रोज़ों को एक ही नीयत में एकत्रित करना

प्रश्न : क्या उस व्यक्ति को फज़ीलत प्राप्त होगी जिसने शव्वाल के छ: रोज़ों में से तीन रोज़े, अय्यामे बीज़ (अर्थात् चाँद की तेरहवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं तारीख़ को अय्यामें बीज़ कहा जाता है) के रोज़े के साथ एक ही नीयत से रखे ?

उत्तर :

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

मैं ने अपने अध्यापक शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ -रहिमहुल्लाह- से इस मुद्दे के बारे में प्रश्न किया तो उन्हों ने उत्तर दिया कि उसके लिए इस की आशा की जा सकती है क्योंकि उस पर यह बात सच उतरती है कि उसने शव्वाल के छ: रोज़े रखे, इसी तरह उस पर यह बात भी सच उतरती है कि उसने अय्यामे बीज़ के रोज़े रखे, और अल्लाह तआला की अनुकंपा और कृपा बहुत विस्तृत है।

और इसी मस्अले के बारे में फज़ीलतुश्शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन ने मुझे निम्नलिखित उत्तर दिया :

जी हाँ, यदि उसने शव्वाल के छ: रोज़े रख लिए तो अय्यामे बीज़ के रोज़े उस से समाप्त हो गये, चाहे उसने वे रोज़े बीज़ के दिनों में रखे हों, या उस से पहले या उसके बाद ; क्योंकि उस पर यह बात सच उतरती है कि उसने महीने के तीन दिनों के रोज़े रखे, और आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा का फरमान है कि "नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम प्रत्येक महीने के तीन दिनों का रोज़ा रखते थे और आप इस बात की परवाह नहीं करते थे कि आप ने महीने के शुरू के, या उसके मध्य के या उसके अंत के रोज़े रखे हैं।"

और यह ऐसे ही है जैसे कि सुन्नते मुअक्कदा के द्वारा तहिय्यतुल मस्जिद समाप्त हो जाती है, चुनाँचि यदि कोई व्यक्ति मस्जिद में दाखिल हो और सुन्नते मुअक्कदा पढ़ ले तो उस से तहिय्यतुल मिस्जद समाप्त हो जायेगी . . . और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

शैख मुहम्मद सालेह अल मुनज्जिद

शव्वाल के छ: रोज़ों और अय्यामे बीज़ के रोज़ों को एक ही नीयत में एकत्रित करना

शव्वाल के छ: रोज़ों और अय्यामे बीज़ के रोज़ों को एक ही नीयत में एकत्रित करना

प्रश्न : क्या उस व्यक्ति को फज़ीलत प्राप्त होगी जिसने शव्वाल के छ: रोज़ों में से तीन रोज़े, अय्यामे बीज़ (अर्थात् चाँद की तेरहवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं तारीख़ को अय्यामें बीज़ कहा जाता है) के रोज़े के साथ एक ही नीयत से रखे ?

उत्तर :

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

मैं ने अपने अध्यापक शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ -रहिमहुल्लाह- से इस मुद्दे के बारे में प्रश्न किया तो उन्हों ने उत्तर दिया कि उसके लिए इस की आशा की जा सकती है क्योंकि उस पर यह बात सच उतरती है कि उसने शव्वाल के छ: रोज़े रखे, इसी तरह उस पर यह बात भी सच उतरती है कि उसने अय्यामे बीज़ के रोज़े रखे, और अल्लाह तआला की अनुकंपा और कृपा बहुत विस्तृत है।

और इसी मस्अले के बारे में फज़ीलतुश्शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन ने मुझे निम्नलिखित उत्तर दिया :

जी हाँ, यदि उसने शव्वाल के छ: रोज़े रख लिए तो अय्यामे बीज़ के रोज़े उस से समाप्त हो गये, चाहे उसने वे रोज़े बीज़ के दिनों में रखे हों, या उस से पहले या उसके बाद ; क्योंकि उस पर यह बात सच उतरती है कि उसने महीने के तीन दिनों के रोज़े रखे, और आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा का फरमान है कि "नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम प्रत्येक महीने के तीन दिनों का रोज़ा रखते थे और आप इस बात की परवाह नहीं करते थे कि आप ने महीने के शुरू के, या उसके मध्य के या उसके अंत के रोज़े रखे हैं।"

और यह ऐसे ही है जैसे कि सुन्नते मुअक्कदा के द्वारा तहिय्यतुल मस्जिद समाप्त हो जाती है, चुनाँचि यदि कोई व्यक्ति मस्जिद में दाखिल हो और सुन्नते मुअक्कदा पढ़ ले तो उस से तहिय्यतुल मिस्जद समाप्त हो जायेगी . . . और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

शैख मुहम्मद सालेह अल मुनज्जिद

शव्वाल के छ: रोज़ों के साथ रमज़ान की क़ज़ा को एक ही नीयत में एकत्रित करना शुद्ध नहीं है

शव्वाल के छ: रोज़ों के साथ रमज़ान की क़ज़ा को एक ही नीयत में एकत्रित करना शुद्ध नहीं है

क्या यह जाइज़ है कि मैं शव्वाल के छ: रोज़े उन दिनों की क़ज़ा की नीयत के साथ रखूं जिन दिनों का मैं ने रमज़ान में मासिक धर्म के कारण रोज़ा तोड़ दिया था ?

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

ऐसा करना शुद्ध नहीं है, क्योंकि शव्वाल के छ: दिनों के रोज़े रमज़ान के पूरे महीने के रोज़े रखने के बाद ही हो सकते हैं।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह "फतावा अस्सियाम" (438) में फरमाते हैं :

"जिस व्यक्ति ने अरफा के दिन, या आशूरा के दिन रोज़ा रखा और उसके ऊपर रमज़ान की क़ज़ा बाक़ी है तो उसका रोज़ा सही (शुद्ध) है, लेकिन यदि वह यह नीयत करे कि वह इस दिन रमज़ान की क़ज़ा का रोज़ा रख रहा है तो उसे दो अज्र प्राप्त होगा : क़ज़ा के अज्र के साथ अरफा के दिन का अज्र या आशूरा के दिन का अज्र। यह साधारण नफ्ल (ऐच्छिक) रोज़े का मामला है जो कि रमज़ान के साथ संबंधित नहीं होता है, परन्तु जहाँ तक शव्वाल के छ: रोज़ों की बात है तो वह रमज़ान के साथ संबंधित है और वह रमज़ान की क़ज़ा के बाद ही हो सकता है। अत: यदि वह क़ज़ा करने से पूर्व उसके (यानी शव्वाल के) रोज़े रखता है तो उसे उसका अज्र नहीं मिलेगा, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "जिस व्यक्ति ने रमज़ान का रोज़ा रखा, फिर उसके पश्चात ही शव्वाल के महीने के छ: रोज़े रखे तो गोया कि उसने ज़माने भर का रोज़ा रखा।" और यह बात सर्वज्ञात है कि जिसके ऊपर क़ज़ा बाक़ी हो तो वह रमज़ान का (मुकम्मल) रोज़ा रखने वाला नहीं समझा जायेगा यहाँ तक कि वह कज़ा को मुकम्मल कर ले।" (इब्ने उसैमीन की बात समाप्त हुई)।

यदि शेष दिन पर्याप्त नहीं हैं तो क्या वह क़ज़ा करने से पहले शव्वाल के छ: रोज़े से शुरूआत करेगा

यदि शेष दिन पर्याप्त नहीं हैं तो क्या वह क़ज़ा करने से पहले शव्वाल के छ: रोज़े से शुरूआत करेगा ?

क्या रमज़ान के तोड़े हुए रोज़ों की कज़ा करने से पहले शव्वाल के छ: रोज़े रखना जाइज़ है यदि (शव्वाल के) महीने के जो दिन बाक़ी बचे हैं वे उन दोनों का एक साथ रोज़ा रखने के लिए काफी नहीं हैं ?

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

शुद्ध कथन के अनुसार शव्वाल के छ: रोज़े रखना रमज़ान के रोज़ों को पूरा करने से संबंधित है, और इस बात पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान तर्क है कि :"जिस व्यक्ति ने रमज़ान का रोज़ा रखा, फिर उसके पश्चात ही शव्वाल के महीने के छ: रोज़े रखे तो वह ज़माने भर (आजीवन) रोज़ा रखने के समान है।" (सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 1164)

इस हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान "सुम्मा" (अर्थात फिर) हरफे अत्फ (समुच्चय बोधक अक्षर) है जो अनुक्रम और एक के पीछे दूसरे के होने को दर्शाता है, जिस से पता चलता है कि सर्व प्रथम रमज़ान के रोज़े को पूरा करना ज़रूरी है (चाहे वह अदा हो या क़ज़ा), फिर उसके पश्चात शव्वाल के छ: रोज़े रखे जायें, ताकि हदीस में जो अज्र व सवाब वर्णित है वह पूर्णतया सिद्ध हो सके।

और इसलिए कि जिस व्यक्ति पर रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा अनिवार्य है उसके बारे में कहा जायेगा कि : उसने रमज़ान के कुछ दिनों का रोज़ा रखा, यह नहीं कहा जायेगा कि उसने रमज़ान का रोज़ा रखा। लेकिन यदि इंसान के साथ कोई उज़्र (बहाना, कारण) पेश आ जाये जो उसे क़ज़ा करने के कारण शव्वाल के महीने में शव्वाल के छ: रोज़े रखने से रोक दे, जैसे कि कोई महिला प्रसव स्थिति वाली हो और वह पूरे शव्वाल, रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा ही करती रह जाये, तो वह शव्वाल के छ: रोज़े ज़ुल-क़ादा के महीने में रख सकती है, क्योंकि वह मा’ज़ूर (उज़्र व बहाना वाली) है। इसी प्रकार हर वह मनुष्य जिसके पास कोई उज़्र (कारण) हो तो उसके लिए रमज़ान के रोज़ों की कज़ा करने के बाद ज़ुल-क़ादा के महीने में शव्वाल के छ: रोज़ों की क़ज़ा करना धर्म संगत है। किन्तु जो व्यक्ति बिना किसी कारण के शव्वाल के महीने को उसका रोज़ा रखे हुए बिना निकाल दे तो उसे यह अज्र व सवाब प्राप्त नहीं होगा।

तथा शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि यदि किसी महिला पर रमज़ान के रोज़ों का क़र्ज़ है तो क्या उसके लिए जाइज़ है कि वह शव्वाल के छ: रोज़ों को क़र्ज़ से पहले रखे या कि क़र्ज़ को शव्वाल के छ: रोज़ों पर प्राथमिकता दे ?

तो उन्हों ने इस प्राकर उत्तर दिया :

"यदि महिला पर रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा अनिवार्य है तो वह शव्वाल के छ: रोज़ों को रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा करने के बाद ही रखेगी, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फरमाते हैं : "जिसने रमज़ान का रोज़ा रखा, फिर उसके पश्चात ही शव्वाल के छ: रोज़े रखे।" और जिस पर रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा अनिवार्य है उसने रमज़ान का रोज़ा नहीं रखा है। अत: उसे शव्वाल के छ: दिनों के रोज़े का सवाब (पुण्य) प्राप्त नहीं होगा मगर इसके बाद कि वह रमज़ान की कज़ा को संपन्न कर ले। यदि मान लिया जाये कि रमज़ान की क़ज़ा में शव्वाल का पूरा महीना लग गया, उदाहरण के तौर पर कोई महिला प्रसव की स्थिति में हो जाये और वह रमज़ान के एक दिन का भी रोज़ा न रखे, फिर शव्वाल के महीने में रोज़े की क़ज़ा शुरू करे और ज़ुल-क़ादा का महीना दाखिल होने के बाद ही उस से फारिग हो, तो वह छ: दिनों का रोज़ा रख सकती है, और उसे शव्वाल में रोज़ा रखने वाले के समान अज्र व सवाब मिलेगा, क्योंकि यहाँ पर उसका विलंब करना एक ज़रूरत के कारण है और उसके लिए (शव्वाल ही के महीने में छ: रोज़े रखना) दुश्वार था, अत: उसे उसका अज्र प्राप्त होगा।" मजमूउल फतावा 19/20 से समाप्त हुआ।

?क्या शव्वाल के रोज़े प्रति वर्ष रखना ज़रूरी हैं

क्या शव्वाल के रोज़े प्रति वर्ष रखना ज़रूरी हैं ?

एक व्यक्ति शव्वाल के छ: रोज़े रखता है, उसे कोई बीमारी या कोई रूकावट आ गई या सुस्ती और काहिली के कारण वह किसी साल उसका रोज़ा नहीं रखा, तो क्या उस पर कोई गुनाह है ? क्योंकि हम यह बात सुनते हैं कि जो व्यक्ति किसी वर्ष उसका रोज़ा रख लेता है तो उस के ऊपर उसे न छोड़ना अनिवार्य हो जाता है।

ईद के दिन के बाद शव्वाल के महीने में छ: रोज़े़ रखना सुन्नत है, और जिसने एक बार या उस से अधिक बार उसका रोज़ा रख लिया तो उसके ऊपर निरंतर (अर्थात् प्रति वर्ष) उसका रोज़ा रखना अनिवार्य नहीं हो जाता है, और उसका रोज़ा न रखने वाला गुनाहगार नहीं होता है।

और अल्लाह तआला ही तौफीक़ देने वाला (शक्ति का स्रोत) है। तथा अल्लाह तआला हमारे पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, आप की संतान और साथियों पर दया और शांति अवतरित करे।

इफ्ता और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्थायी समिति के फतावा (10/391) से।

الأربعاء، 8 سبتمبر 2010

ज़कातुल फित्र निकालने का समय

ज़कातुल फित्र निकालने का समय

प्रश्नः

क्या ज़कातुल फित्र निकालने का समय ईद की नमाज़ के बाद से उस दिन के अंत तक है ?

उत्तरः

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

ज़कातुल फित्र का समय ईद की नमाज़ के बाद से नहीं शुरू होता है, बल्कि वह रमज़ान के अंतिम दिन के सूरज के डूबने से शुरू होता है, और वह शव्वाल के महीने की पहली रात है, और ईद की नमाज़ के साथ समाप्त हो जाता है ; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसे नमाज़ से पहले निकालने का आदेश दिया है। तथा इसलिए भी कि इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस व्यक्ति ने उसे नमाज़ से पहले अदा कर दिया तो वह मक़बूल ज़कात है, और जिस आदमी ने उसे नमाज़ के बाद अदा किया तो वह सामान्य सदक़ों में से एक सदक़ा है।" (अबू दाऊद 2/262- 263, हदीस संख्या : 1609, इब्ने माजा 1/585, हदीस संख्या :1827, दारक़ुतनी 2/138, हाकिम 1/409)

तथा उसे इस से एक या दो दिन पहले भी निकालना जाइज़ है, इसका प्रमाण इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा की रिवायत है कि उन्हों ने कहा : "अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रमज़ान के सदक़तुल फित्र को अनिवार्य किया है . . . ",

और उसके अंत में फरमाया : "और वे लोग (अर्थात् सहाबा किराम) उस से एक या दो दिन पहले दिया करते थे।"

जिस आदमी ने उसे उसके समय से विलंब कर दिया वह दोषी और गुनाहगार है, उसके ऊपर अनिवार्य है कि वह उसे विलंब करने से तौबा करे और उसे गरीबों के लिए निकाले।

और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला (शक्ति का स्रोत) है।

इफ्ता और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्थायी समिति, फत्वा संख्या (2896).

ज़कातुल फित्र की मात्रा

ज़कातुल फित्र की मात्रा

प्रश्नः

ज़कातुल फित्र की मात्रा क्या है ? और वह कब निकाली जायेगी? तथा वह किस को दी जायेगी ? और क्या उसे मस्जिद के इमाम की तरफ से एकत्रित करना फिर उसे उसके हक़दारों पर वितरित करना चाहे कुछ समय के बाद ही क्यों न हो, जाइज़ है ? और क्या यह मुद्रा स्फीति (मुद्रा विस्तार) के अधीन है ? और क्या उसे उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान में जिहाद करने वालों को भेजना या उसे उदाहरण के तौर पर मस्जिद के निर्माण के कोष में देना जाइज़ है ?

उत्तरः

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

ज़कातुल फित्र की मात्रा एक साअ़ खजूर, या जौ, या किशमिश या पनीर, या तआ़म (खादपदार्थ) है और उसके निकालने का समय ईदुल फित्र की रात से ईद की नमाज़ के पहले तक है।

तथा उसे इस से एक या दो दिन पहले निकालना जाइज़ है। उसे उसके निकालने वाले के देश में गरीब मुसलमानों को दिया जायेगा, तथा उसे किसी दूसरे देश के गरीबों को स्थानांतरित करना जाइज़ है जिसके वासी अधिक़ ज़रूरतमंद हों। मस्जिद के इमाम और उसके समान अमानतदार (विश्वसनीय) आदमी के लिए उसे एकत्रित करना फिर उसे गरीबों पर वितरित करना जाइज़ है, इस शर्त के साथ कि वह ईद की नमाज़ से पहले उसके हक़दारों तक पहुँच जाये। तथा उसकी मात्रा मुद्रा स्फीति के अधीन नहीं है, बल्कि शरीअत ने उसकी मात्रा एक साअ़ निर्धारित की है। और जिस आदमी के पास अपने लिए एवं जिसका खर्च उसके ऊपर अनिवार्य है उसके लिए मात्र ईद के दिन का भोजन (आहार) है तो उस से ज़कातुल फित्र समाप्त हो जायेगा। तथा उसे मस्जिद के निर्माण या परोपकारी कार्यों में लगाना जाइज़ नहीं है।

और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला (शक्ति का स्रोत) है।

इफ्ता और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्थायी समिति के फतावा (9/369) से।

सामर्थ्य के बावजूद जक़ातुल फित्र न निकालने का हुक्म

सामर्थ्य के बावजूद जक़ातुल फित्र न निकालने का हुक्म

प्रश्नः

उस आदमी का क्या हुक्म है जिसके पास ज़कातुल फित्र निकालने का सामर्थ्य (ताक़त) है फिर भी वह ज़कात न निकाले?

उत्तरः

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

जिस व्यक्ति ने ज़कातुल फित्र नहीं निकाली है उस पर अनिवार्य है कि वह अल्लाह तआला से तौबा करे और उस से क्षमा याचना करे, क्योंकि वह उसे रोकने के कारण पापी और दोषी है। तथा वह उसे निकाल कर उसके हक़दारों तक पहुँचाये। और ईद की नमाज़ के बाद उसे सामान्य सदक़ों में से एक सदका़ समझा जायेगा।

और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला (शक्ति का स्रोत) है।

इफ्ता और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्थायी समिति।

ज़कातुल फित्र का हुक्म

ज़कातुल फित्र का हुक्म

प्रश्नः

क्या यह हदीस सहीह है कि "रमज़ान का रोज़ा उठाया नहीं जाता यहाँ तक कि ज़कातुल फित्र अदा कर दिया जाये" ?

और यदि मुसलमान रोज़ेदार ज़रूरतमंद है, ज़कात के निसाब का मालिक नहीं है तो क्या उक्त हदीस के सहीह होने के कारण या उसके अलावा अन्य सुन्नत से प्रमाणित सही शरई प्रमाण के कारण उस पर ज़कातुल फित्र का भुगतान करना अनिवार्य है ?

उत्तरः

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

सदक़तुल फित्र हर उस मुसलमान पर अनिवार्य है जिसके ऊपर स्वयं उसका खर्च अनिवार्य है यदि उसके पास ईद के दिन और उसकी रात को उसके भोजन और उसके अधीन लोगों के भोजन से अतिरिक्त एक साअ (गल्ला इत्यादि) बाक़ी बचता है।

इस विषय में असल (मूल प्रमाण) वह हदीस है जो इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से प्रमाणित है कि उन्हों ने फरमाया:

"अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक साअ खजूर, या एक साअ जौ ज़कातुल फित्र, मुसलमानों में से गुलाम और आज़ाद, पुरूष और स्त्री, छोटे और बड़े पर अनिवार्य कर दिया है, और उसे लोगों के नमाज़ के लिए निकलने से पूर्व अदा कर देने का आदेश दिया है।" (सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम, और हदीस के शब्द सहीह बुखारी के हैं)

तथा दूसरा प्रमाण अबू सईद खुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि उन्हों ने फरमाया:

"जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे बीच मौजूद थे तो हम ज़कातुल फित्र एक साअ खाना (खादपदार्थ), या एक साअ खजूर, या एक साअ जौ, या एक साअ किशमिश, या एक साअ पनीर निकालते थे।" (सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम)

तथा आदमी के लिए शहर के आहार उदाहरण के तौर पर चावल इत्यादि से एक साअ निकालना काफी है।

यहाँ साअ से अभिप्राय नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का साअ है और वह एक औसत आदमी की दोनों हथेलियों से चार लप होता है।

यदि कोई आदमी ज़कातुल फित्र नहीं निकालता है तो वह दोषी और गुनाहगार है और उसके ऊपर क़ज़ा करना (यानी समय निकल जाने के बाद भी उसे निकालना) अनिवार्य है।

जहाँ तक उस हदीस का संबंध है जिसका आप ने उल्लेख खिया है, तो हमें उसके सही होने का ज्ञान नहीं है।

हम अल्लाह तआला से दुआ मांगते हैं कि वह आप को तौफीक़ प्रदान करे, तथा हमारे और आप के लिए कथन ओर कर्म को सुधार दे। और अल्लाह तआला ही तौफीक़ प्रदान करने वाला (शक्ति का स्रोत) है।

इफ्ता और वैज्ञानिक अनुसंधान की स्थायी समिति के फतावा (9/364) से।