शाबान के महीने के अह्काम
हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए योग्य है जिस ने हमें इस्लाम की नेमत से सम्मानित किया और उसे अपने अन्तिम ईशदूत व सन्देष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर संपन्न कर के हमारे लिए एक मात्र धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया। तथा अल्लाह की कृपा व शान्ति अवतरित हो पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर जिन्हों ने धर्म के प्रसार व प्रदर्शन का कर्तव्य उम्मत की खैरख्वाही व सदुपदेश के साथ उचित ढंग से निभाया, और उम्मत को एक ऐसे रोशन मार्ग पर छोड़ कर गए जिस से वही आदमी भटके गा जो वास्तव में अभागा ही होगा।
इस्लामी भाईयो ! इन दिनों हम जिस शुभ महीने की छत्र-छाया में साँस ले रहे हैं, वह शाबान का महीना है। इस्लाम धर्म में इस महीने का क्या महत्व व विशेषता है? इस की बाबत सहीह हदीसों में क्य विर्णत हुआ है और पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस महीने में विशिष्ट रूप से क्या कार्य करते थे? इसके विपरीत आज साधारण मुसलमान क्या कार्य कर रहे हैं? इन पर सार रूप से प्रकाश डालना उचित होगा।
अल्लाह की कृपा से अगली पंक्तियों में उन बातों की धार्मिक वास्तविकता का उल्लेख किया जा रहा है जिन्हें संसार के बहुत से मुसलमान शाबान के महीने में नेकी और धर्म का काम समझ कर करते हैं।
1. शाबान के महीने में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क्या करते थे? :
आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है वह कहती हैं कि: ``मैं ने पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को रमज़ान के अतिरिक्त किसी अन्य महीने का सम्पूर्ण रोज़ा रखते हुए नहीं देखा, तथा मैं ने आप को शाबान से अधिक किसी अन्य महीने का रोज़ा रखते हुए नहीं देखा।´´ (बुखारी एंव मुस्लिम)
सुनन् नसाई और त्रिमिज़ी की एक रिवायत में है कि उन्हों ने कहा कि ``मैं ने पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को शाबान से अधिक किसी और महीने का रोज़ा रखते हुए नहीं देखा, आप थोड़े दिनों को छोड़ कर पूरे महीने का रोज़ा रखते थे, बल्कि आप पूरे महीने का रोज़ रखते थे।´´
इस हदीस से पता चला कि शाबान के महीने में अधिक से अधिक नफ्ली रोज़ा रखना मस्नून है।
पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस महीने में अधिक से अधिक रोज़ा क्यों रखते थे? इसका संकेत उसामा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस से मिलता है। वह कहते हैं कि मैं ने पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा: आप जितना शाबान में रोज़ा रखते हैं, उतना मैं ने आप को किसी अन्य महीने में रोज़ा रखते हुए नहीं देखा? तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ``यह ऐसा महीना है जिस से लोग गफलत के शिकार हैं, जो रजब और रमज़ान के बीच पड़ता है। तथा यह ऐसा महीना है जिस में अल्लाह रब्बुल-आलमीन के पास आमाल पेश किए जाते हैं, इसलिए मेरी इच्छा है कि मेरे आमाल मेरे रोज़े की हालत में पेश किए जाएं।´´ (नसाई, इसे अललामा अल्बानी ने हसन कहा है)
इस हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शाबान के महीने में बाहुल्य रूप से रोज़ा रखने के दो कारण बतलाए हैं :
(क) इस महीने में लोग गफलत के शिकार रहते हैं, और लोगों के अल्लाह की इताअत और उपासना में गफलत करने के समय, अल्लाह की इताअत करना अधिक महत्व पूर्ण हो जाता है।
(ख) इस महीने में अल्लाह के पास लोगों के आमाल पेश किए जाते हैं, और रोज़ा उन आमाल में से है जो अल्लाह को बहुत पसन्दीदा है और उस में अल्लाह के लिए नम्रता व इख्लास पाया जाता है, इस लिए आप ने चाहा कि आप के आमाल रोज़े की हालत में पेश किए जाएं।
2. पन्द्रहवीं शाबान की रात के बारे में विर्णत हदीसें :
शाबान के महीने की पन्द्रहवीं रात के बारे में अनेक हदीसें आई हैं, लेकिन वो सब या तो ज़ईफ हैं या मौज़ूअ़ (मनगढ़त), जो प्रमाण नहीं बन सकतीं। केवल एक हदीस ऐसी है जिसे कुछेक मुहद्दिसीन ने हसन कहा है, जबकि अधिकांश ने उसे ज़ईफ कहा है। उस हदीस का अर्थ यह है कि पन्द्रहवीं शाबान की रात को अल्लाह तआला अपने बन्दों पर मुत्तला हो कर (झांक कर), मुश्रिक और कीना कपट (द्वेष) रखने वाले को छोड़ कर अपने सभी बन्दों को बख्श देता है।
किन्त यदि इस हदीस को सहीह मान लिए जाए, तब भी इस में 15 शाबान की रात को कोई विशिष्ट कार्य करने का कोई तर्क नहीं है।
इसके अतिरिक्त 15 शाबान की रात की फज़ीलत या उस में कोई विशिष्ट कार्य (इबादत) करने के बारे में जो भी हदीसें बयान की जाती हैं, वो सब की सब या तो ज़ईफ या गढ़ी हुई हैं। अत: उस रात कोई विशिष्ट अमल करना अनाधार और अवैद्ध होगा, और पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन के अनुसार बिद्अत कहलाए गा। तथा आख़िरत में ऐसा अमल स्वीकार नहीं होगा। इसलिए हर मुसलमान को ऐसे कामों से अति दूर रहना चाहिए।
3. शाबान में प्रचलित बिद्आत:
जैसाकि उल्लेख किया गया कि शाबान के महीने में विशिष्ट रूप से पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से केवल इतना प्रमाणित है कि आप इस महीने में अधिक से अधिक नफ्ली रोज़ा रखते थे, और इसके लिए किसी दिन को सुनिश्चित नहीं करते थे। किन्तु आजकल बहुत सारे मुसलमान पन्द्रहवीं शाबान की रात और उसके दिन को बहुत महत्व और विशेषता व प्राथमिकता देते हुए ऐसे अधार्मिक कार्य करते हैं जिन का हमारे पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई शरीअत से कोई संबंध नहीं है। बल्कि वो बिदआत की सूची में आते हैं जिन से इस्लाम ने सख्ती से रोका है। इस महीने में प्रचलित बिद्आत और अधार्मिक कार्य का संछिप्त उल्लेख किया जा रहा है ताकि मुसलमान इन से दूर रहें।
1. पन्द्रहवीं शाबान की रात को जश्न मनाना।
2. पन्द्रहवीं शाबान की रात को `सौ रक्अतें´ बराअत की नमाज़ (हज़ारी नमाज़) पढ़ना, जिस में हर रक्अत में दस बार सूरतुल-इख्लास पढ़ना और हर दो रक्अत पर सलाम फेरना। ज्ञात होना चाहिए कि पन्द्रवीं शाबान की रात को नमाज़ पढ़ने की बिद्अत का आरम्भ 448 हि0 में बैतुल-मक़्दिस में `इब्ने अबिल हम्रा´ नामी आदमी के द्वारा हुआ। इस से पूर्व इसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। (गौर करें ! फिर यह कैसे वैद्ध हो सकता है? )
3. पन्द्रहवीं शाबान की रात को औरतों का बन-ठन कर क़ब्रिस्तान जाना, वहाँ क़ब्रों पर चिरागाँ करना, अगरबत्ती जलाना, फूल चढ़ाना, मुर्दों के सामने अपनी मुरादें रखना और अपना दुखड़ा सुनाना...इत्यादि।
4. घरों, सड़कों, क़ब्रों, मिस्जदों में रोशनी करना, जो कि मजूसियों की ईजाद की हुई चीज़ है, जो आग को अपना परमेश्वर मानते हैं।
5. मुसीबत व बला टालने, लम्बी उम्र और लोगों से बेनियाज़ी के लिए छ: रक्अत नमाज़ पढ़ना।
6. पन्द्रहवीं शाबान को हल्वा बनाना (शुब्रात का हल्वा), इसके पीछे जो आस्था पाया जाता है वह अनाधार और एकमात्र अफ्साना है।
7. इस रात रूहों के आगमन का अक़ीदा रखना, और यह गुमान करना कि इस रात मरे हुए लोगों की रूहें घरों में आती हैं और रात भर बसेरा करती हैं, अगर घर में हल्वा पाती हैं तो खुश हो कर लौटती हैं वर्ना मायूस हो कर लौटती हैं। इसलिए उनके मन पसन्द खाने तैयार किए जाते हैं।
8. रूह मिलाने का खत्म दिलाना। जिसके पीछे यह आस्था कार्य कर रहा है कि जो लोग शुब्रात से पहले मर जाते हैं उनकी रूहें भटकती रहती हैं, रूहों से नहीं मिलती हैं, फिर जब शबे बराअत (पन्द्रहवीं शाबान की रात) आती है तो रूहों को रूहों से मिलाने का खत्म दिलाया जाता है। नि:सन्देह इस्लामी अक़ीदा के साथ यह स्पष्ट परहास है!
यह और इनके अतिरिक्त अल्लाह जाने क्या क्या खुदसाख्ता काम पन्द्रहवीं शाबान की रात और उसके दिन में बड़े भाव और आस्था व श्रद्धा के साथ किए जाते हैं, जिनका सहीह इस्लामी अक़ीदा से तनिक भी संबंध नहीं है, बल्कि यह उसके बिल्कुल विपरीत हैं। क्योंकि यह सारे काम न तो पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं किए हैं और न इनका आदेश दिया है, और न ही इन्हें खुलफा-ए-राशिदीन, अन्य सहाबा, ताबेईन और सलफ ने किए हैं, जबकि वह लोगों में सब से अधिक खैर व भलाई और फज़ाइले-आमाल के अभिलाषी और इच्छुक थे। और इस संबंध में विर्णत हदीसों के ज़ईफ और मौज़ू -मनगढ़त- होने पर जम्हूर उलमा की सहमति है।
4. 15 शाबान को रोज़ा रखने का हुक्म :
जहाँ तक विशिष्ट रूप से केवल पन्द्रहवीं शाबान को रोज़ा रखने का प्रश्न है तो यह जाईज़ नहीं है ; क्योंकि इस दिन विशिष्ट रूप से रोज़ा रखने की कोई विशेषता नहीं है और न ही पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस दिन रोज़ा रखने का कोई सबूत है। इसलिए बिना किसी धार्मिक प्रमाण के इस दिन को रोज़ा रखने के लिए सुनिश्चित करना ना-जाईज़ और बिद्अत है।
5. शाबान के अन्तिम दिन (शक्क के दिन) का रोज़ा रखना:
शाबान के 29 दिन पूरे होने के तीसवीं शाबान की रात को आसमान पर ग़ुबार या बादल छा जाने के कारण चाँद दिखाई न पड़े, और न ही दूसरे स्थान से चाँद देखे जाने की विश्वस्त सूचना मिले, तो ऐसी अवस्था में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फर्मान के अनुसार शाबान के तीस दिन पूरे करने चाहिए, इसलिए अगला दिन शाबान का समझा जाए गा, और उस दिन यह गुमान करके रोज़ा रखना जाईज़ नहीं होगा कि हो सकता है चाँद निकला हो और बादल के कारण हमें दिखाई नहीं दिया, अथवा यह ख्याल करना कि यदि कहीं से चाँद देखने की खबर आ गई तो रमज़ान का रोज़ा हो जाए गा, वर्ना नफ्ली रोज़ा होगा। ऐसा करना गलत और अवैद्ध है। इस दिन को हदीस में शक्क का (सिन्दग्ध अथवा अनिश्चित) दिन कहा गया है और इस दिन रोज़ा रखने से रोका गया है। पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फर्मान है :
``अ्रगर आसमान अब्र-आलूद (बदली वाला ) हो जाए (और चाँद दिखाई न दे) तो शाबान के तीस दिन पूरे करो।´´ (सहीह बुख़ारी व मुस्लिम)
तथा अम्मार बिन यासिर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं : ``जिस ने शक्क के दिन रोज़ा रखा उस ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ना-फर्मानी की।´´ (अबू दाऊद, नसाई, त्रिमिज़ी, इब्ने माजा)
- इसी प्रकार पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस बात से भी रोका है कि आदमी रमज़ान के इस्तिक़बाल में रमज़ान शुरू होने से एक दो दिन पहले ही रोज़ा रखना आरम्भ कर दे। किन्तु जिस आदमी की नफ्ली रोज़े रखने की आदत हो और वह रोज़ा अन्तिम दिनों में पड़ रहा है तो ऐसी सूरत में वह शाबान के अन्तिम दिनों में रोज़ा रख सकता है। (सहीह बुखारी व मुस्लिम)
- इसी तरह पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आधा शाबान बीत जाने के बाद (अर्थात 16 शाबान से) रोज़ा रखने से मना किया है, जैसाकि सुनन् त्रिमिज़ी और इब्ने माजा की सहीह हदीस में है।
लेकिन दूसरी सहीह हदीसों से तर्क मिलता है कि 15 शाबान के बाद रोज़े रखे जा सकते हैं, जैसाकि बुखारी व मुस्लिम की पूर्व हदीस में है।
इसी प्रकार स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शाबान के अधिकांश दिनों का रोज़ा रखते थे।
दोनों प्रकार की हदीसों को सामने रख कर यह बात स्पष्ट होता है कि 15 शाबान के बाद उस आदमी के लिए रोज़ा रखना मना है जो 15 शाबान के बाद रोज़ा रखने की शुरूआत कर रहा है।
लेकिन जो आदमी 15 शाबान से पहले ही से रोज़ा रखता रहा है, वह उसके बाद भी रोज़ा रख सकता है। इसी प्रकार जिस आदमी की रोज़ा रखने की कोई आदत है तो वह अपनी आदत के अनुसार 15 शाबान के बाद भी रोज़ा रख सकता है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई आदमी सोमवार और जुमेरात का रोज़ा रखता है तो वह 15 शाबान के बाद भी इन दिनों में रोज़ा रख सकता है।
अल्लाह तआला से दुआ है कि मुसलमानों को दीन की उचित समझ प्रदान करे और उन्हें बिद्आत व खुराफात की अथाह दलदल से निकाल कर सिराते-मुस्तक़ीम पर जमा दे। (लेखकः अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह)