الأربعاء، 4 مارس 2009

ईद मीलादुन्नबी का उत्सव (ऐतिहासिक एंव धार्मिक दृश्य)

ईद मीलादुन्नबी का उत्सव

(ऐतिहासिक एंव धार्मिक दृश्य )

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ।

हर प्रकार की प्रशंसा और गुण-गान सर्व संसार के पालनहार अल्लाह के लिए योग्य है जिस ने हमें अपनी महान कृपा से इस्लाम की नेमत से सम्मानित किया -जिस से बढ़ कर इस दुनिया में कोई अन्य नेमत नहीं- और उसे अपने अन्तिम सन्देष्टा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हाथों पर सम्पूर्ण कर के हमारे लिए पसन्द कर लिया। तथा अल्लाह की कृपा और शान्ति अवतरित हों उस प्रतिष्ठित पैग़म्बर पर जिन्हों ने इस्लाम के प्रसार का कर्तव्य उम्मत की खैरखाही (शुभ चिंता) के साथ उत्तम ढंग से पूरा किया और उम्मत को एक उज्ज्वल पथ पर छोड़ कर गये जिस से वही व्यक्ति भटके गा जो अत्यन्त अभागा होगा।

अत: अब इस धर्म में किसी कमी या वृद्धि की कोई गुन्जाईश नहीं। किन्तु इस्लाम के दुश्मनों ने -जिन्हें इस्लाम का प्रभुत्व और फैलाव काटे खाता है और उन्हें क्रोध और ग़ुस्से से ग्रस्त कर देता है- कुछ लोगों के लिए बिद्अतों को संवार कर उन्हें अच्छे पोशाक में प्रस्तुत किया है और उन्हें ज़ुह्द, परहेज़गारी, अल्लाह की समीपता और रसूल से महब्बत के रूप में प्रकट किया है, जिस का आशय उनके धर्म को बिगाड़ना है ताकि सुन्नतें अपरिचित और अनजान हो जाएँ और उन का स्थान बिद्अतें ग्रहण कर लें। साथ ही साथ कुछ दुष्ट उलमा और तसव्वुफ वालों ने इसे लोगों के बीच सरदारी और कमाई का साधन बना कर इन बिद्अतों को अधिकाधिक फैलाया और प्रचलित किया यहाँ तक कि मुसलमानों में जंगल की आग के समान फैल गईं और साधारण लोगों ने इन्हें नेकी और पुण्य का कार्य समझकर अपनी आँखों से लगा लिया और इनकी सुरक्षा और संरक्षण को अनिवार्य समझने लगे।

ऐसी अवस्था में सुन्नत का पालन करना और बिद्अत के विरूद्ध उठ खड़े होना यथाशक्ति प्रत्येक मुसलमान विशेषकर धर्म ज्ञानियों का कर्तव्य है। निम्नलिखित लेख इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।

वर्तमान समय में फैली हुई बिद्आत में से एक घृणित बिद्अत रबीउल-अव्वल की बारहवीं तारीख को पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस के उत्सव (जश्न) के रूप में मनाना है, जिसे दुनिया के विभिन्न देशों में मुसलमान बड़े हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। किन्तु इस जश्ने मीलाद का धार्मिक तथ्य क्या है? इसका ऐतिहासिक आधार क्या है? इस घिनावनी प्रथा का मुस्लिम समुदाय में कहाँ से चलन हुआ? और इसका अविष्कार करने वालों का इसके पीछे क्या उद्देश्य था? अधिकांश लोग इस से अपरिचित और अचेत हैं। यदि इसकी वास्तविकता को प्रकाश में लाया जाए और इसका अविष्कार करने वालों के मुख से पर्दा उठाया जाए तो सुन्नते रसूल के शैदाई और महब्बते रसूल के नाम पर जान निछावर करने वाले मुसलमान समझ-बूझ से काम लेते हुए इस असत्य और अवैद्ध परम्परा से अपने आप को दूर और अलग-थलग रखें गे और इस का स्वयं भी विरोध करें गे।

क़ुर्आन और हदीस में इसका उल्लेख होना तो बहुत दूर की बात है, कहीं इसका संकेत तक भी नहीं मिलता।

पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने पूरे जीवन काल में न तो स्वयं अपना जन्म दिवस मनाया, न अपने किसी सहाबी को इसका आदेश दिया और न ही अपने मरने के बाद इसे मनाने का कोई संकेत दिया। हाँ, आप ने अपने साथियों को इस बात की चेतावनी अवश्य दी कि कहीं ईसाईयों के समान मेरी प्रशंसा करने में सीमा को पार न कर जाना।

इस धर्ती पर सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से बढ़ कर पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से अपार महब्बत करने वाला, पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नतों का सर्वाधिक ज्ञान रखने वाला और पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत -धर्म शास्त्र- का अत्यधिक पालन करने वाला कोई नहीं। फिर भी किसी एक -मात्र एक- सहाबी ने भी आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस को नहीं मनाया।

सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के पश्चात सर्वश्रेष्ठ लोग वह हैं जो उनके बाद आए, जिन्हें ``ताबईन´´ के नाम से जाना जाता है। इनके समय काल में भी पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म दिवस नहीं मनाया गया। ताबईन के बाद के समय काल में भी किसी ने ईद मीलादुन्नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का त्योहार नहीं मनाया।

चार प्रसिद्ध इमाम अर्थात: इमाम अबू हनीफा, इमाम मालिक, इमाम शाफई और इमाम अहमद -रहिमहुमुल्लाह अजमईन- जिनका मुसलमानों के निकट बहुत बड़ा महत्व और इस्लाम की शिक्षा के प्रसारण में बहुत बड़ा योगदान है( इन में से किसी एक इमाम ने भी पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस को न तो स्वयं मनाया और न ही इसे मनाने का किसी को सुझाव दिया। बल्कि इनके समय काल में इसका नाम तक नहीं सुना गया।

प्रश्न उठता है कि यह बिद्अत कब, कैसे और कहाँ से आई? इस का अविष्कार -ईजाद- करने वाले मुसलमान भी थे या? ....

सब से पहले जिस ने यह बिद्अत ईजाद की वह `बनू उबैद अल-क़द्दाह´ हैं, जो अपने आप को फातिमी कहते थे और अली बिन अबी तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु के संतान की ओर इन्तिसाब करते थे। वास्तव में वह `बातिनी धर्म´ के संस्थापकों में से हैं, उनका दादा `इब्ने दीसान´ -जो `अल-क़द्दाह´ के लक़ब से प्रसिद्ध, जाफर बिन मुहम्मद अस-सादिक़ का आज़ाद किया हुआ ग़ुलाम और `अहवाज़´ का बासी था- ईराक़ में बातिनी धर्म के संस्थापकों में से था। फिर वह मराकश चला गया और वहाँ उस ने अक़ील बिन अबी तालिब की ओर अपने को मन्सूब किया और यह गुमान किया कि वह उनके वंश से है। जब उसके साथ कट्टर राफिज़ियों -शीयों- का एक समूह सम्मिलित हो गया तो उस ने यह दावा किया कि वह मुहम्मद बिन इस्माईल बिन जाफर अस-सादिक़ के वंश से है। उन्हों ने उसके इस दावा को स्वीकार कर लिया, हालांकि वास्तविकता यह है कि मुहम्मद बिन इस्माईल बिन जाफर अस-सादिक़ ने अपनी कोई संतान नहीं छोड़ी थी। उसके मानने वालों में से हमदान बिन क़रमत भी था जिसकी ओर कुख्यात क़रामतह की निस्बत है। फिर एक समय के पश्चात उन में सईद बिन अल-हुसैन बिन अहमद बिन अब्दुल्लाह बिन मैमून बिन दीसान अल-क़द्दाह के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति प्रकट हुआ और उसने अपना नाम व नसब बदल दिया और अपने मानने वालों से कहा कि मैं उबैदुल्लाह बिन अल-हसन बिन मुहम्मद बिन इस्माईल बिन जाफर अस-सादिक़ हूँ। इस प्रकार मराकश में उसके फित्ने का उदय हुआ।

किन्तु इल्मे अन्साब (वंशावली शास्त्र)के माहिर अन्वेषकों ने इस के इस नसब के दावा का खण्डन किया। चुनांचे रबीउल-आख़िर 402 हिज्री में फुक़हा, मुहद्देसीन, क़ाज़ियों और सदाचारियों की एक जमाअत ने महज़रनामें (हस्ताक्षरित पत्र) तैयार किए जो फातिमियों -उबैदियों- के नसब के खंडन पर आधारित थे और सब ने यह गवाही दी कि मिस्र का शासक: मन्सूर बिन नज़ार बिन मअद बिन इस्माईल बिन अब्दुल्लाह बिन सईद जब मराकश के देश में पहुँचा तो वहाँ उस ने अपना नाम उबैदुल्लाह और लक़ब महदी रख लिया, उसके पूर्वज ख़वारिज थे, अली बिन अबी तालिब की औलाद में उनका कोई नसब नहीं है, और जो कुछ इन्हों ने दावा किया है वह बातिल और झूठ है, बल्कि अली बिन अबी तालिब के घराने के किसी व्यक्ति के बारे में हमें यह ज्ञान नहीं कि उस ने इन लोगों को खवारिज घोषित करने में संकोच किया हो। मिस्र का शासक और उसके पूर्वज कुफ्फार (नास्तिक), फुस्साक़ (पापी), फुज्जार (दुराचारी), मुलहिद (अधर्मी ) और ज़िन्दीक़ (धर्म भ्रष्ठ) हैं, इस्लाम के इनकारी और मजूसियत (अग्नि पूजा) और सनवियत के श्रद्धालू हैं। इन्हों ने हुदूद (धार्मिक दंड) को मुअत्तल (निलंबित)कर दिया, शरमगाहों को वैध कर दिया, शराब को हलाह कर दिया है और रक्तपात का बाज़ार गर्म कर रखा है। अंबिया -ईश्दूतों- को गाली देते हैं, पूर्वजों पर धिक्कार करते हैं और प्रमेश्वरता का दावा करते हैं। इस महज़र (घोषणा पत्र) पर हनफी, मालिकी, शाफई, हंबली, अहले हदीस, अहले कलाम, अनसाब के माहिर अन्वेषकों, अलवियों और साधारण लोगों के हस्ताक्षर उपस्थित हैं, जो सब के सब उनके नसब का खण्डन करते हैं और उन्हें मजूस (अग्नि पूजक) या यहूद की औलाद में से घोषित करते हैं, उदाहरणत: इन हस्ताक्षर कर्ताओं में: अल-मुर्तज़ा, अर-रज़ी, अबुल क़ासिम अल-जज़री, अबू हामिद अल-असफराईनी, अबुल हसन क़ुदूरी, अबु अब्दुल्लाह बैज़ावी, अबु अब्दुल्लाह सैमरी और अबुल क़ासिम तनूखी हैं। कुछ उलमा ने इनके खण्डन में पुस्तकें लिखी हैं और इस बात से पर्दा उठाया है कि इनका धर्म प्रत्यक्ष रूप से रफ्ज़ और तशय्यु था और प्रोक्ष रूप से मात्र कुफ्र था। (अल बिदाया वन निहाया, इब्ने कसीर 5ध्537-540)

फातिमियों -उबैदियों- का प्रवेश मिस्र में 5 रमज़ान 362 हिज्री में हुआ, और यही उन के शासन काल का आरम्भ है। चुनांचे साधारणत: जन्म दिवस (बर्थ डे, बरसी ) मनाने और विशेषकर पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस का जश्न मनाने की बिद्अत उबैदियों के काल में प्रकट हुई और इन्हीं लोगों ने पहली बार मुसलमानों के लिए अवैध -बिदई- जश्नों और उत्सवों का द्वार खोला, यहाँ तक कि ये लोग पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म दिवस, अली बिन अबी तालिब का जन्म दिवस, हसन का जन्म दिवस, हुसैन का जन्म दिवस और फातिमा ज़हरा का जन्म दिवस मनाने के साथ साथ, मजूसियों और ईसाईयों के त्योहारों को भी बड़े हर्ष व उल्लास से मनाते थे, उदाहरणत: नौ रोज़, गतास, मीलादे मसीह (क्रिस मस् ) और अदस आदि। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह इस्लाम से कितना दूर और इस के विरोधी थे। तथा यह इस बात का भी तर्क है कि वह उपरोक्त उत्सवों का संगठन पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के वंश से महब्बत के कारण नही करते थे, बल्कि इन उत्सवों का अविष्कार करके इनके पीछे उनका उद्देश्य अपने बातिनी धर्म और असत्य विचारधारा को लोगों के बीच फैलाना और प्रचार करना तथा उन्हें सत्य धर्म और शुद्ध आस्था से विमुख करना था।

प्रश्न यह है कि क्या कोई बुद्धिमान और अपने धर्म से आस्था रखने वाला मुसलमान इन उबैदियों -फातिमियों- की घढ़ी हुई इस घृणित बिद्अत को मनाना पसन्द करेगा!!!

इसी पर बस नहीं, बल्कि उस समय काल के सामाजिक स्थिति पर दृष्टि करने से ज्ञात होता है कि उबैदियों की राजनीति केवल एक उद्देश्य को प्राप्त करने पर आकषिZत थी और वह था पूरे संघर्ष और नि:स्वार्थता के साथ लोगों को अपने धर्म को स्वीकार करने पर तत्पर करना और उसे मिस्र तथा आस पास के अपने प्रशासन छेत्रों में सामान्य धर्म बनाना। इसके चलते उबैदी शासक यहूदियों और ईसाईयों के साथ अत्यन्त सहानुभूति और रिआयत का व्यवहार करते थे, उन्हें बड़े-बड़े पदों और मन्त्रालयों पर नियुक्त करते थे। दूसरी ओर अहले-सुन्नत के साथ उनका व्यवहार उसके विपरीत था, तीनों ख़ुलफा (अबु बक्र, उमर, उसमान रज़ियल्लाहु अन्हुम) और इनके अतिरिक्त अन्य सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम और सामान्य सुिन्नयों को मिंबर व मेहराब से लानत किया जाता था। 372 हिज्री में पूरे मिस्र देश में तरावीह की नमाज़ बन्द कर दी गई। 395 हिज्री में मिस्र के भीतर समस्त मिस्जदों, इमारतों, भवनों, कि़ब्रस्तानों और दुकानों पर पूर्वजों के धिक्कार और लानत पर सम्मिलित बातें लिखवाई गईं और उन्हें रंगों से रंगा गया। इन सभी चीज़ों से बढ़ कर यह कि उबैदी शासक -मनसूर बिन नज़ार- ने उलूहियत -ईश्वर होने- का दावा किया और लोगों को आदेश दिया कि जब खतीब मिंबर पर उस का नाम ले तो उसके सम्मान में सब पंक्ति बनाकर खड़े हो जायें, चुनांचे उसके समस्त देशों में ऐसा ही किया गया, यहाँ तक कि हरमैन शरीफैन में भी। मिस्र वालों को विशेष रूप से यह आदेश था कि जब उसका नाम आए तो वह सज्दे में गिर जाया करें।

क्या फिर भी एक गैरतमन्द मुसलमान इन इस्लाम के शत्रुओं के अविष्कारित घिनावनी बिद्अत को मनाने को पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से महब्बत, श्रद्धा और सम्मान का नाम दे गा?!!!

इस्लामी भाईयो! यह है इस मीलाद की ऐतिहासिक पृिष्ठ भूमि -जिसे आज बहुत सारे मुसलमान बड़े ही हर्ष व उल्लास के साथ मनाते हैं- जिस की ओट में उबैदियों ने अपने बातिनी धर्म का प्रचार एंव प्रसार किया तथा सुन्नत और अहले सुन्न्त का सर्वनाश किया।

इसी लिए उलमाये-सुन्नत ने जब से यह बिद्अत ईजाद हुई है, इस का खण्डन करते आए हैं। और हर युग में इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जात रहा है( ताकि जो लोग इस बिद्अत में लिप्त हैं उन्हें सावधान किया जाए और इस से संबंधित उठाए जाने वाले प्रश्नों और सन्देहों का निराकरण किया जाए।

क़ुर्आन एंव हदीस का साधारण ज्ञान रखने वाला मुसलमान भी यदि न्याय एंव बुद्धि से काम ले तो इस मस्अले की वास्तविकता जानने में उसे कठिनाई नहीं होगी, किन्तु बुरा हो तअस्सुब और हठ का जो आदमी को अन्धा बना देती हैं। बहर हाल सामान्य मुसलमानों की शुभ चिन्ता और ख़ैरखाही के कर्तव्य के आधार पर इस से संबंधित एक फत्वा प्रस्तुत किया जा रहा है।

सउदी अरब के एक महा धर्म-शास्त्री एंव भाष्य कार अल्लामा मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि: नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस का उत्सव मनाना कैसा है? तो उन्हों ने उत्तर दिया:

प्रथम: पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म की रात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, बल्कि वर्तमान युग के कुछ ज्ञानियों की तह्क़ीक यह है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म दिवस -निश्चित रूप से- रबीउल-अव्वल की नवीं रात है, इसकी बारहवीं रात नहीं है। इस आधार पर रबीउल-अव्वल की बारहवीं तारीख को पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस का जश्न मनाना ऐतिहासिक रूप से निराधार और वस्तुस्थिति के विरूद्ध है।

द्वितीय: शरई -धार्मिक- दृष्टि कोण से भी जश्न मीलाद मनाना अनाधार और अवैध है। क्योंकि यदि वह अल्लाह की शरीअत -धर्म-शास्त्र- में से होता तो पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसे अवश्य मनाते, या उम्मत को इसकी सूचना देते। और यदि आप ने इसे मनाया होता या उम्मत को इस की सूचना दी होती तो इस का उल्लेख सुरक्षित रूप से पाया जाना अनिवार्य था। इसलिए कि अल्लाह तआला का फर्मान है

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``हम ने ही इस ज़िक्र -क़ुरआन- को उतारा है और हम ही इस की सुरक्षा करने वाल हैं।´´ (सूरतुल-हिज्र:9)

जब उपरोक्त किसी चीज़ का प्रमाण नहीं है तो ज्ञात हुआ कि यह अल्लाह तआला के धर्म में से नहीं है, और जब वह अल्लाह तआला के धर्म में से नहीं है तो हमारे लिए जाईज़ -वैध- नहीं है कि हम इस के द्वारा अल्लाह तआला की उपासना करें तथा इस के द्वारा अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त करें। जब अल्लाह तआला ने हमारे लिए अपनी निकटता प्राप्त करने के लिए एक निश्चित मार्ग एंव पथ निर्धारित कर दिया है और वह मार्ग वही है जिसे पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दर्शाया और दिखाया है, तो फिर हमारे लिए -जबकि हम उसके दास और बन्दे हैं- यह कैसे वैध हो सकता है कि उस की निकटता प्राप्त करने के लिए अपनी ओर से कोई मार्ग और पथ अविष्कार करें? यह अल्लाह तआला के प्रति एक अपराध है कि हम उस के धर्म में किसी ऐसी चीज़ को वैध घोषित कर लें जिस का इस धर्म से कोई संबंध और लगाव नहीं। तथा इस से अल्लाह तआला के निम्नलिखित कथन को झुठलाना निष्कर्षित होता है:

``आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को सम्पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेमत -अनुकम्पा और उपकार- भर पूर कर दी।´´ (सूरतुल माईदा:3)

अत: हम कहते हैं कि यह जश्न मीलाद यदि धर्म के पूर्णता में से है तो इसका पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु से पहले मौजूद होना अनिवार्य है, और यदि वह धर्म के पूर्णता में से नहीं है तो उस का धर्म से होना सम्भव नहीं, इस लिए कि अल्लाह तआला का क्थन है कि:

``आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को सम्पूर्ण कर दिया।´´

और जो व्यक्ति यह गुमान करे कि वह कमाले दीन -धर्म के पूर्णता- में से है, हालांकि उस का वजूद पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बाद हुआ है, तो उस का यह कहना इस आयत को झुठलाता है।

इस में कोई सन्देह नहीं कि वह लोग जो पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस का जश्न मनाते हैं उनका उद्देश्य पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का सम्मान, आप की महब्बत का प्रदर्शन और लोगों के भीतर इस जश्न में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रति मनोभाव को उभारना है। और यह समस्त चीज़ें इबादात -उपासना- में से हैं( पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रेम इबादत -उपासना- है, बल्कि आदमी का ईमान उस समय तक परिपूर्ण नहीं हो सकता जब तक कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उस के निकट उसके प्राण, उसकी संतान, उसके माता पिता और दुनिया के समस्त लोगों से अधिक प्रिय न हो जायें, तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का सम्मान करना इबादत है, इसी प्रकार पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के प्रति भावना को उभारना धर्म में से है (क्योंकि इस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शरीअत की ओर रूजहान (अभिरूचि) पाया जाता है। अत: अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त करने के लिए और उस के पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सम्मान के लिए पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म दिवस का जश्न मनाना इबादत हुआ, और जब यह इबादत है तो कभी भी यह जाइज़ -वैध- नहीं है कि अल्लाह तआला के धर्म में ऐसी चीज़ ईजाद की जाए जो उस का भाग नहीं है। इसलिए जश्न मीलाद मनाना बिद्अत और हराम -निषिध- है।

इस के अतिरिक्त हम सुनते हैं कि इस जश्न में ऐसे मुनकरात -अवैध काम- पाए जाते हैं जिन्हें न शरीअत वैध ठहराती है और न ही हिस्स और बुद्धि। इस में लोग ऐसे क़सीदे -नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की प्रशंसा में कविताएं- गाते हैं जिन में पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बारे में ग़ुलु -अतिश्योक्ति- पाया जाता है, यहाँ तक कि वह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अल्लाह तआला से बड़ा ठहरा देते हैं। अल्लाह की पनाह!

उन्हीं मुनकरात में से यह भी है जो हम कुछ जश्न मनाने वालों की मूर्खता और बुद्धिहीनता के बारे में सुनते हैं कि जब जन्म कथा पढ़ने वाला आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म के वर्णन पर पहुँचता है तो समस्त उपस्थित लोग एक साथ खड़े हो जाते हैं और कहते हैं कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की रूह उपस्थित हो गई( इस लिए हम उसके सम्मान में खड़े होते हैं। यह अत्यन्त मूर्खता और बुद्धिहीनता है। तथा अदब और सभ्यता यह नहीं है कि वह खड़े हो जायें। इसलिए कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने लिए खड़े होने को पसन्द नहीं करते थे। तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम, -जबकि वह लोगों मे सब से अधिक आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से महब्बत करने वाले और हम से कहीं अधिक पैग़म्बर का सम्मान करने वाले थे-, आप के जीवन में आप के लिए खड़े नहीं होते थे( क्योंकि वह जानते थे कि आप इस चीज़ को नापसन्द करते हैं, तो फिर इन काल्पनिक चीज़ों का क्या ऐतिबार।

यह बिद्अत -जश्न मीलाद की बिद्अत- तीनों प्रतिष्ठित सदियों के पश्चात अस्तित्व में आई है, और इस के अन्दर ऐसे मुन्करात किए जाते हैं जिन से असल धर्म में ख़लल (बिगाड़) आता है। इस के अतिरिक्त इस के अन्दर पुरूष एंव स्त्री का इख़तिलात (मिश्रण) और अन्य बुराईयां होती हैं। (फतावा अरकानुल-इस्लाम, लेखक: मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह पृष्ठ सं. 172-174)

هناك 3 تعليقات:

  1. एक अच्छा प्रयास............ शुभकामनाऎं..................

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  2. धन्यवाद ...
    शर्मा जी..

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  3. आपका मक़सद बेहतर है, अल्लाह आपकी जद्दो-जहद को कुबूल फ़रमाए. हाँ, आप वक़्त-ब-वक़्त इसे अपडेट करते रहें और नए पोस्ट करते रहें. आपका ब्लॉग मेरे ब्लॉग पर दिखने लगा है...

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