السبت، 21 نوفمبر 2009

ज़ुल-हिज्जा के 10 दिनों की फज़ीलत

ज़ुल-हिज्जा के 10 दिनों की फज़ीलत

हर प्रकार की प्रशंसा और गुण-गान सर्व संसार के पालन कर्ता अल्लाह के लिए योग्य है जिस ने अपनी महान कृपा से हमें इस्लाम की नेमत से सम्मानित किया, तथा अल्लाह की कृपा और शान्ति अवतरित हो अन्तिम सन्देष्टा मुहम्मद पर जिनके द्वारा हमें इस्लाम का संदेश प्राप्त हुआ।

अल्लाह सुब्हानहु व तआला का उम्मते इस्लामिया -मुस्लिम समुदाय- पर बहुत बड़ा उपकार है कि उन्हें अनेक ऐसे अवसर प्रदान किए हैं जो नेकियों एंव भलाईयों के ऋतु हैं, जिनके अन्दर साधारण कार्य -नेकी- का भी प्रतिफल कई-कई गुना मिलता है। उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण एंव बहुमूल्य अवसर इस्लामी जन्तरी के अन्तिम महीना "ज़ुल-हिज्जा के प्राथमिक दस दिन" हैं। जो अल्लाह तआला के निकट पूरे वर्ष के सब से महान दिन हैं। जिनकी विशेषता और महत्व को उजागर करने के लिए अल्लाह तआला ने क़ुरआन में उनकी सौगन्ध खाई है।

अल्लाह तआला का फर्मान है:

"क़सम है फज्र की और दस रातों की।" (सूरतुल-फज्र:89/1-2)

अधिकांश व्याख्याकारों के निकट इस से अभिप्राय "ज़ुल-हिज्जा" की प्राथमिक दस रातें हैं।

तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इन दिनों में नेक कार्य करने को अल्लाह के निकट सब से पसन्दीदा बताया है, आप ने फरमाया:

"ज़ुल-हिज्जा के प्राथमिक दस दिनों में किया गया अमल सालेह -नेकी- अल्लाह के निकट सब से अधिक प्रिय है।" सहाबा ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना भी इतना प्रिय नहीं है ? आप ने फरमाया: "अल्लाह के मार्ग में जिहाद करना भी इतना प्रिय नहीं, सिवाय उस जिहाद के जिस में आदमी अपने प्राण और धन के साथ निकले और फिर वापस न लौटे।" अर्थात शहीद हो जाए। (सहीह बुखारी )

ज्ञात होना चाहिए कि दिनों में सब से श्रेष्ठ ज़ुल-हिज्जा के प्राथमिक दस दिन हैं और रातों में सब से श्रेष्ठ रमज़ान की अन्तिम दस रातें हैं।

तथा इन दस दिनों में एक दिन ऐसा भी है जिस का रोज़ा रखना दो वर्ष के गुनाहों का कफ्फारा है।

इसी पर बस नहीं बल्कि उस दिन अल्लाह तआला सब से अधिक संख्या में लोगों को जहन्नम से मुक्त करता है।

तथा उस दिन शैतान सब से अधिक अपमानित होता है।

वह ज़ुल-हिज्जा का नवाँ दिन है, जिस दिन संसार के कोने-कोने से आए हुए अल्लाह के मेहमान -हाजी- अरफात के मैदान में ठहरते हैं।

यही वह दिन और स्थान है जब अल्लाह तआला ने इस्लाम धर्म को सम्पूर्ण कर देने की घोषणा की। तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से यह इक़रार लिया कि आप ने इस्लाम के संदेश को पूर्ण रूप से अमानतदारी के साथ लोगों तक पहुँचा दिया है। चुनाँचे सब ने एक ज़ुबान हो कर इस पर हाँ कहा और आप सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने इस पर अल्लाह तआला को गवाह बनाया।

इस शुभ अवसर की छत्र-छाया हमारे सिर पर है। अत: हमारे लिए अति स्वभाविक है कि हम इस बहुमूल्य अवसर से भर पूर लाभ उठायेंं।

इन दस दिनों में करने के योग्य कार्य :

निम्नलिखित पंक्तियों में वह कार्य उल्लेख किये जा रहे हैं जिन को इन दिनों में करना उचित है :

1- हज्ज एंव उम्रा करना: क्योंकि यह बहुत ही अधिक पुन्य के काम हैं, अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "एक उम्रे से दूसरा उम्रा उन दोनों के बीच (होने वाले गुनाहों) का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) है, और मब्रूर हज्ज का बदला जन्नत ही है।" (सहीह बुखारी एंव सहीह मुस्लिम)

तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा रिवायत करते हैं कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "एक के बाद दूसरा हज्ज एंव उम्रा करते रहो ; क्योंकि यह दोनों गरीबी और गुनाहों को ऐसे ही मिटा देते हैं जिस प्रकार लोहार की भठ्ठी लोहे के मैल (ज़ंग) को मिटा देती है।" (सहीह तिर्मिज़ी)

2- रोज़ा रखना: जितना हो सके इन दिनों में रोज़ा रखना ; क्योंकि रोज़ा रखने का बहुत ही अधिक अज्र व सवाब है और यह एक ऐसा काम है जिसे अल्लाह तआला ने अपने लिए चयन कर लिया है, जैसा कि हदीस-क़ुदसी में अल्लाह तआला का फरमान है कि "रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही इस का बदला दूँगा।" (सहीह बुखारी एंव सहीह मुस्लिम)

तथा अबू सईद ख़ुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जो भी बन्दा अल्लाह के मार्ग में एक दिन का रोज़ा रखता है तो अल्लाह तआला इसके कारण उसके चेहरे को सत्तर साल जहन्नम से दूर कर देता है।" (सहीह बुख़ारी एंव सहीह मुस्लिम)

तथा पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने एक सहाबी से फरमाया: "तुम रोज़े को लाज़िम पकड़ो ; क्योंकि इसके समान कोई चीज़ नहीं।"

विशेष रूप से अरफा के दिन (9 ज़ुल-हिज्जा) का रोज़ा रखना मुस्तहब है ; क्योंकि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसकी बहुत बड़ी फज़ीलत बयान की है, जैसाकि अबू क़तादह रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "अरफा -9 ज़ुल-हिज्जा- के दिन के रोज़े के बारे में मुझे अल्लाह तआला से आशा है कि वह इसे इस से एक साल पहले और एक साल बाद के गुनाहों के लिए कफ्फारा (प्रायश्चित) बना देगा।" (सहीह मुस्लिम)

3- इन दिनों में अधिक से अधिक अल्लाह तआला का ज़िक्र करना: क्योंकि इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "अल्लाह के निकट इन दस दिनों से अधिक महान तथा इन में अमले सालेह करने से अधिक पसन्दीदा कोई और दिन नहीं, अत: इन दिनों में अधिक से अधिक ला-इलाहा इल्लल्लाह, अल्लाहु अक्बर और अल्हम्दुलिल्लाह कहो।" (मुस्नद अहमद)

इमाम बुख़ारी ने इब्ने उमर और अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हुमा के बारे में उल्लेख किया है कि वे दोनों सहाबी इन दस दिनों में बाज़ारों में निकलते और ऊँचे स्वर में तक्बीर कहते थे, इनकी तक्बीर को सुनकर लोग भी तक्बीर कहते थे।

आज कल यह सुन्नत मिट चुकी है, अत: हमें चाहिए कि इस सुन्नत को जीवित करें और इन दस दिनों में बाज़ारों, रास्तों, घरों और मस्जिदों आदि में ज़ोर-ज़ोर से तक्बीर कहें।

ज्ञात होना चाहिए कि यह तक्बीर सामान्य रूप से इन दस दिनों में रात एंव दिन के किसी भी समय पढ़ें गे। इसे तक्बीरे मुत्लक़ कहते हैं। इसकी दूसरी क़िस्म तक्बीरे मुक़ैयद है जिसका समय 9 ज़ुल-हिज्जा को फज्र की नमाज़ से आरम्भ होता है और 13 ज़ुल-हिज्जा को अस्र की नमाज़ में समाप्त हो जाता है, यह तक्बीर केवल फर्ज़ नमाज़ों के बाद कही जाती है।

4- क़ुर्बानी करना : क्योंकि क़ुर्बानी हमारे बाप इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सुन्नत तथा हमारे पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत है जिसे आप ने कभी नहीं छोड़ा है, बल्कि मुसलमानों को क़ुर्बानी करने पर उभारते और उस पर जो़र देते हुए आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जो आदमी मालदार होते हुए भी क़ुर्बानी न करे वह हमारी ईदगाह के क़रीब भी न आए।" (सुनन इब्ने माजह)

अत: किसी मुसलमान के लिए ताक़त रखते हुए भी क़ुर्बानी न करना कदापि उचित नहीं है।

जो आदमी क़ुर्बानी करना चाहता है उसे चाहिए कि इन दस दिनों में अपने नाखुन और बाल न काटे यहाँ तक कि 10 ज़ुल-हिज्जा को क़ुर्बानी कर ले। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फर्मान है: "जब तुम ज़ुल-हिज्जा का चाँद देख लो और तुम में से कोई व्यक्ति क़ुर्बानी करना चाहे तो वह अपने बाल और नाखुन न काटे यहाँ तक कि क़ुर्बानी कर ले।" (सहीह मुस्लिम आदि)

यदि किसी आदमी की पहले से क़ुर्बानी करने की इच्छा नहीं थी और ज़ुल-हिज्जा का महीना आरम्भ होने के बाद उसने क़ुर्बानी करने की इच्छा की, तो वह उसी समय से अपने नाखुन और बाल काटने से रूक जाए गा जब से उस ने क़ुर्बानी की इच्छा की है।

किन्तु यदि क़ुर्बानी करने का इच्छुक आदमी अपने नाखुन और बाल काट लेता है, तो उसे अल्लाह से तौबा-इस्तिग़फार करना चाहिए, इसके अतिरिक्त उस पर कोई कफ्फारा आदि अनिवार्य नहीं है।

क़ुर्बानी का समय दस ज़ुल-हिज्जा को ईद की नमाज़ पढ़ने के पश्चात आरम्भ होता है और 13 ज़ुल-हिज्जा को सूरज डूबने तक रहता है।

5- फराईज़ एंव वाजिबात की पाबन्दी करने के साथ-साथ अधिक से अधिक नफ्ली इबादतों जैसे नवाफिल, सदक़ात व खैरात, क़ुरआन की तिलावत, लोगों को भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने तथा इनके अतिरिक्त अन्य नेक कामों का इच्छुक होना चाहिए ; क्योंकि इन दिनों में नेकी करना अल्लाह तआला को बहुत ही महबूब और पसन्दीदा है।

अत: इस्लामी भईयो ! हमें चाहिए कि इस शुभ अवसर को ग़नीमत समझते हुए इस में अधिक से अधिक नेक काम करें, अपने गुनाहों से क्षमा याचना करें और अल्लाह की नाफर्मानी और अवज्ञा से अति दूर रहें।

अल्लाह तआला से प्रार्थना है कि हमें इस महान अवसर से लाभान्वित होने की तौफीक़ प्रदान करे और अपनी इबादत और आज्ञापालन पर हमारा सहायक हो।

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